मंगलवार, 12 जनवरी 2016

सुर-३७७ : "विवेकानंद ज्ञान ज्योति---०८ !!!"

दोस्तों...

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दिन या साल से नहीं
नापो सार्थक कर्मों से आयु तो
कोई भी हो व्यक्तित्व
सागर सा विशाल नजर आता
जो अपने तपोबल से
एक बूंद से ही दरिया बन जाता
छलका अमृत कलश
निर्जीव आत्माओं को सजीव बनाता
ऐसा ही स्वामी विवेकानंदका आदमकद
किसी महाग्रंथ में भी न समाता ॥
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हम सभी जानते हैं कि स्वामी विवेकानंदका इस धरा पर आगमन १२ जनवरी १८६३को हुआ और ४ जुलाई १९०२को वे अपने सभी लक्ष्यों को एवं यात्रा को पूर्ण कर वापस परमधाम चले भी गये तो इस तरह से यदि वर्षों में नापे तो उनका जीवन बहुत ही अल्प दिखाई देता केवल ३९ सालों का लेकिन जब उनके इस संपूर्ण जीवन वृत्त का आकलन करते तो ये सकल ब्रह्मांड की तरह अनंत नजर आता जिसका कोई भी ओर-छोर पकड़ हम चलना शुरू करें लेकिन उसके अंत को पकड़ पाना मुश्किल हो जाता कि जैसे ही उनको अपने पावन ध्येय तक पहुंचने का मार्ग ज्ञात हुआ उन्होंने एक पल भी गंवाये बिना उस पथ पर अनवरत चलना शुरू कर दिया और कहीं भी किसी भी पड़ाव पर विश्राम करने का विचार तक मन में नहीं लाया क्योंकि उनका सोचना था कि जब तक अपनी मंजिल को न पा लो रुकना नहीं चाहिये इसे ही उन्होंने अपने जीवन का मूल मंत्र माना और सभी को सफ़लता प्राप्त करने का ये सूत्र थमा दिया कि उठो, जागो और तब तक रुको नहीं, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जायेइस तरह वे कम शब्दों में बड़ी ही महत्वपूर्ण बात कह गये और केवल यही नहीं उन्होंने तो अपने हर एक वाक्य में जीवन, कर्म, ध्यान, अध्यात्म, आत्मानुभूति, धर्म के बड़े ही गूढ़ रहस्य बड़े ही सरल शब्दों में हम सबको समझाये जिनमें से यदि किसी एक को भी हम अपने जीवन में उतार ले तो फिर दुनिया की कोई भी शक्ति हमें अपनी मंजिल प्राप्त करने से नहीं रोक सकती क्योंकि उनके द्वारा बताये गये ये सिद्धांत महज़ किताबी ज्ञान से उपजे क्षणिक दर्शन का सार नहीं थे बल्कि उनके कर्मयोगी जीवन के अनुभवों से निकली बेशकीमती पारस मणियाँ हैं जिन्हें वो हम सबको बांटकर चले गये ताकि हम भी इनके स्पर्श से कुंदन बन न सिर्फ अपना ही बल्कि दूसरों का जीवन भी अनमोल बना दे कि केवल अपने आपके लिये जीना तो पशुवत व्यवहार होता जबकि सूरज की मानिंद अपना आप जलाकर दुनिया को रोशन करना ही वास्तविक मायनों में सार्थक जीवन होता जैसा कि स्वामी विवेकानंदने जिया ।  

उनका मानना था कि युवाही किसी राष्ट्र के नव-निर्माण, पुनर्जागरण और विकास के जरूरी सहायक तत्व होते अतः उनको अपनी ताकत का भान होना चाहिये जिससे कि वो अपने अंदर छिपी उन अद्भुत शक्तियों का सही तरीके से उपयोग कर सके न कि उनको बेवज़ह के कामों में बेकार ही गंवा दे जैसा कि आजकल के नवजवान कर रहे जिन्हें ये पता ही नहीं कि जिस उम्र में वे ये जान पाते कि जीवन में कुछ करना चाहिये या ये बोध होता कि अब तक उन्होंने कुछ भी अलग नहीं किया तब तक तो विवेकानंदजीजैसी महान आत्मा अपना काम कर के वापस परमात्मा में विलीन हो चुकी थी जबकि हम सब तो चालीस की उम्र में आकर सोचना शुरू करते फिर भी न तो अपना लक्ष्य और न ही उसे पाने का रास्ता ही तय कर पाते और बाकी की जिंदगी भी इसी उधेड़बुन में गुज़ार देते मतलब आधी जिंदगी बेख्याली में तो आधी बेबसी में गुज़ार देते तब भी कितने लोग होते जो इस अहसास को महसूस करते कुछ तो ताउम्र इससे गाफ़िल होकर जैसे आते वैसे ही चले जाते याने कि करोड़ो की जनसंख्या वाले इस देश में नाम मात्र व्यक्ति ही संवेदनशील देशभक्त समाजसेवी परोपकारी किस्म के होते जो अपनी सांसों को मातृभूमि का कर्ज समझते और उसे वतन पर ही कुर्बान कर जाते और जब भी जनम ले तो फिर इसे ही दुहराना चाहते स्वामी जीकी दृष्टि में सच्ची कामयाबी, सच्ची ख़ुशी तक पहुँचने का सबसे बढ़िया तरीका ऐसा मनुष्य बनना हैं, जो बदले में कुछ नहीं चाहता स्वार्थहीन व्यक्ति से ज्यादा प्रसन्न कोई नहीं होताअतः हम सबको ऐसा ही बनने का प्रयत्न करना चाहिये लेकिन हम तो जिसमें निज लाभ न हो ऐसा कोई कार्य करना ही नहीं चाहते केवल अधिकारों के आकांक्षी होते कर्तव्यों से हमें कोई लेना-देना नहीं होता जो कि तपस्वी बनने का प्रथम लक्षण होता तो फिर किस तरह से हमारा देश विश्व में अग्रणी बन सकता कि हमें तो उसकी परवाह ही नहीं हमें तो अपने आप से ही फुर्सत नहीं जिसके कारण हम अपनों को भी नजरंदाज़ कर देते तो फिर देश तो बहुत दूर की बात उसे तो हमारी प्राथमिकताओं की सूची में कहीं कोई स्थान भी हासिल नहीं होता भला, कोई देश को भी अपनी मनचाहे कामों की लिस्ट में स्थान देता हैं क्या?

कहते हैं कि भारत की वर्तमान स्थिति को देखते हुये एक विदेशी ने उनसे आश्चर्यचकित होकर पूछा था--- वेदों की भूमि भारत आज इतनी दयनीय अवस्था में क्यों हैं ?” तब उसके प्रश्न का जवाब देते हुये स्वामी जी ने बड़ी ही गहरी बात बताई--- यदि किसी मनुष्य के पास बंदूक हैं परंतु वह उसे चलाना न जानता हो तो अवश्य ही शत्रु से पराजित हो जायेगा, भारत के पास अथाह आध्यात्मिक कोष हैं जो सभी प्रकार की निर्धनता को दूर करने में सक्षम हैं परंतु आज भारतवासी इस कोष का लाभ उठाना नहीं जानते इसी कारण पिछड़ गयेवाकई एक बहुत बड़ी सच्चाई उन्होंने बयाँ कर दी कि हम शक्ति संपन्न होते हुये भी यदि उसका सही दिशा में उपयोग न करें तो फिर किस तरह से एक पूर्ण विकसित राष्ट्र का दर्जा हासिल कर सकते तो आज युवा दिवसपर देश के इस चिरयुवा संत से यही शिक्षा ग्रहण करें कि जो भी हुनर हमारे पास हैं उससे हम किसी दूसरे का जीवन भी बनाने का प्रयत्न करें और देश के सभी लोग हाथ से हाथ मिला एक साथ चले ताकि अपने साथ-साथ अपने देश की उन्नति में भी सहभागी बन सके यही हम सबकी तरफ से उनके जन्मदिन का सही तोहफ़ा होगा... :) :) :) !!!     
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१२ जनवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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