गुरुवार, 28 जनवरी 2016

सुर-३९३ : "शेरे पंजाब लाला लाजपत राय जयंती... !!!"

दोस्तों...

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देकर अपनी आहुति
जलाई रखी मशाले क्रांति
ऐसे वीर शहीदों की
भूल न जाये हम जयंती
जिनकी शहादत से
मनाया हमने जश्ने आज़ादी
ऐसे ही थे एक बहादुर  
पंजाब केसरी ‘लाला लाजपत राय’
आओ उतारे उनकी आरती
जिनकी कुर्बानी से
आज़ाद हो सकी माँ भारती
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आज से लगभग डेढ़ सौ बरस पूर्व सन् १८६५ की बात हैं जबकि सम्पूर्ण भारतवर्ष में अंग्रेजों ने अपना अधिकार जमा रखा था और दिन-ब-दिन उनका अत्याचार बढ़ता ही जा रहा ऐसे में उसका ही एक हिस्सा ‘पंजाब’ भी अछूता न रहा वहां पर, भी फिरंगियों ने क्रूरता की हर सीमा पार कर दी थी तभी तो वहां से वीरों की बड़ी भारी जमात ने जनम लिया और इन विदेशियों को अपनी भारतभूमि से खदेड़ने की कसम खाई तो फिर अपने हौंसलों को किसी भी तरह की परिस्थिति में झुकने न दिया बल्कि अपनी आगे आने वाली पीढ़ी में वही भावना प्रवाहित की तो ऐसे समय में जबकि ‘पंजाब’ पूरी तरह से अंग्रेजों के कब्जे में था और जहाँ देखो वहीँ उन गोरों का बोलबाला था उनके जुल्मों-सितम की तो ये इन्तेहाँ था कि कोई भी उनके खिलाफ आवाज उठाने की जुर्रत नहीं कर सकता था यदि कोई ऐसा करता तो उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ता जिसने देशवासियों के दिल में आक्रोश के साथ-साथ प्रतिकार की भी तीव्र भावना पैदा कर दी थी तो इस तरह के अराजकता भरे माहौल में २८ फरवरी १८६५ को मुंशी ‘राधाकृष्णजी’ की पत्नी ने एक बालक को जन्म दिया जिसे वे प्यार से ‘लाजपत राय’ कहकर बुलाते थे जो हर धर्म का पूर्ण आदर सम्मान करते थे अतः उनको अपने पिता से सभी की धार्मिक भावनाओं का आदर करने की सुमति प्राप्त हुई जिसने आगे चलकर उनको ‘आर्य समाज’ का अनुयायी बना उनके अंदर देशप्रेम की अखंड ज्योत जला दी जिसकी प्रेरणा से वे अपनी मातृभूमि के लिये आजीवन कुछ न कुछ करते ही रहे चाहे फिर ‘समाज सेवा’ हो या ‘देशभक्ति’ या ‘लेखन’ या ‘शिक्षा’ या फिर ‘वकालत’ का क्षेत्र सबमें अपना झंडा गाड़ दिया ।

देश में व्याप्त कुरीतियों को समाज से समूल नष्ट करने के संकल्प के साथ ही उन्होंने भारतमाता को विदेशियों की कैद से आज़ाद कराने की शपथ भी ली जिसके लिये उन्होंने अपने दल में ऐसे सदस्यों को जोड़ना शुरू किया जो पूरी लगन व समर्पण के साथ वतन के लिये कुछ भी करने को हमेशा तैयार हो ऐसे में उनको ‘लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक’ एवं ‘विपिनचंद्र पाल’ का साथ मिला जिससे मिलते ही वो ‘लाल-बाल-पाल’ की तिकड़ी में तब्दील हो गये जहाँ तीन लोग आपस में इस तरह से संयुक्त हुये कि एक नाम बन गये जिनका एकमात्र लक्ष्य ‘पूर्ण आज़ादी’ हासिल करना था जिसके लिये किसी भी तरह का समझौता उनको गंवारा नहीं था और इतिहास में वि वो तीनों एक साथ इस तरह से अंकित हुये कि उनको पृथक कर पाना मुमकिन नहीं जिन्होंने कदम से कदम से मिलाकर हर अभियान में एक साथ भाग लिया चाहे फिर वो स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार हो या फिर अंग्रेजों का विरोध या फिर ब्रिटिश युवराज के भारत आगमन पर उनके स्वागत के खिलाफ आवाज़ उठाना या फिर बंगाल विभाजन के विरुद्ध अपना प्रतिरोध हर अवसर पर खुलकर अपना आक्रोश ज़ाहिर किया क्योंकि उनका मत था कि फिरंगियों के सामने गिडगिडाने या एक के बाद एक प्रस्ताव पास कराने से स्वतंत्रता नहीं मिलने वाली बल्कि इसके लिये सबको एकजुट होकर सम्मिलित प्रयास करना होगा चूँकि वे ‘गरम दल’ की विचारधारा वाले थे तो उन्हें अहिंसा या शांति के मार्ग की जगह क्रांति का पथ पसंद था जिसमें आमने-सामने वार कर अपना हक़ यदि न मिले तो उसे छिनकर हासिल करने के मत का पक्ष लिया जाता था पर, खामोश बैठकर तमाशा देखने वालों में वो शामिल नहीं थे उन्होंने तो स्वयं ही लिखा था---

"मेरा मज़हब हक़परस्ती है, मेरी मिल्लत क़ौमपरस्ती है, मेरी इबादत खलकपरस्ती है, मेरी अदालत मेरा ज़मीर है, मेरी जायदाद मेरी क़लम है, मेरा मंदिर मेरा दिल है और मेरी उमंगें सदा जवान हैं।"

वो समय ऐसा था जब राजनैतिक गतिविधियाँ इतनी तेजी से हो रही थी कि संपूर्ण देश में ही देशभक्ति का सैलाब उमड़ पड़ा था ऐसे में जब ३ फ़रवरी, १९२८ को ‘साइमन कमीशन’ का भारत आगमन हुआ तो पूरे देश में विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी और लाहौर में ३० अक्टूबर, १९२८ का दिन देश के लिये बड़ा दुर्भाग्यशाली साबित हुआ जब ‘लाला लाजपत राय’ के नेतृत्व में ‘साइमन कमीशन’ का विरोध कर रहे युवाओं को बेरहमी से पीटा गया जहाँ पर पुलिस ने ‘लाला लाजपत राय’ की छाती पर निर्ममता से लाठियाँ बरसाईं जिसकी वजह से वे बुरी तरह घायल हो गये और इस घटना के १७ दिन बाद यानि १७ नवम्बर, १९२८ को लाला जी ने आख़िरी सांस ली पर, उस आंतरिक वेदना से पीड़ित होकर उन्होंने ओजपूर्ण वाणी में अपने अंतिम भाषण में कहा था---

“मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के क़फन की कील बनेगी” ।

उनकी ये भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य साबित हुई क्योंकि लालाजी की मृत्यु से समस्त भारतीय भूमंडल में रहने वाला हर एक व्यक्ति उत्तेजित हो उठा और चं’द्रशेखर आज़ाद’, भगतसिंह’, राजगुरु’, सुखदेव’ व अन्य क्रांतिकारियों ने ‘लालाजी’ की मौत का बदला लेने का न सिर्फ़ निर्णय लिया बल्कि इन जाँबाज देशभक्तों ने तो ‘लालाजी’ की मौत के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और १७ दिसंबर, १९२८ को ब्रिटिश पुलिस के अफ़सर ‘सांडर्स’ को गोली से उड़ा दिया जिसकी वजह से ‘राजगुरु’, सुखदेव’ और ‘भगतसिंह’ को फ़ाँसी की सज़ा सुनाई गई लेकिन इन बलिदानों ने अनगिनत क्रांतिकारियों को पैदा किया ।

शेर-ए-पंजाब ‘लाला लाजपत राय’ जी ने जीते-जी तो युवाओं को प्रेरित किया ही लेकिन उनकी मृत्यु ने भी अनेक देशभक्तों के भीतर स्वतंत्रता प्राप्ति का वो जोश-जुनून उत्पन्न किया कि आख़िरकार १५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजों को ये देश छोड़कर जाना ही पड़ा तो ऐसी तेजस्वी कर्मठ ऊर्जावान शख्सियत को आज जयंती पर मन से नमन और ये शब्द सुमन अर्पित करते हैं... जय हिंद... जय भारत... :) :) :) !!!   
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२८ जनवरी २०१८
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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