रविवार, 1 जनवरी 2017

पोस्ट -२०१७ -०१ : “चलो नया साल नहीं... नया दिन ही मना लो...”

साथियों... 

नमस्कार...


‘विरोध’ अच्छा हैं मगर, वहां जहाँ जरूरी हो और जहाँ इसकी आवश्यकता भी हो लेकिन वहां तो लोग मुंह में दही जमाकर बैठ जाते हैं और फालतू बातों की खाल निकालते रहते हैं याने कि राजनीति की तरह अब हर जगह, हर एक मामले और बात में पक्ष-विपक्ष की तरह अपना-अपना मत रखने का प्रचलन बोले तो ट्रेंड चल निकला हैं तो उसी की तर्ज पर इस तरह के मसले सामने आते रहते हैं...

तभी तो ‘क्रिसमस’ को ‘तुलसी दिवस’, ‘वैलेंटाइन्स डे’ को ‘मातृ-पितृ दिवस’ और ‘न्यू इयर’ को जिसे सारी दुनिया ने मान्यता दी उसे भी विदेशी संस्कृति का बताकर लोग भारतीय संस्कृति बचाने खड़े हो जाते हैं जबकि अब जब हम वैश्वीकरण के दौर से गुजर रहे सब कुछ साँझा कर रहे हैं तब ऐसी छोटी-छोटी बातें क्या हमें विकास की तरफ ले जा सकती हैं और इस पर भी तो गौर कीजिये कि विदेशी कंप्यूटर, सॉफ्टवेयर यहाँ तक कि ‘विदेशी सोशल मीडिया’ का उपयोग कर इस तरह की बातें कर रहे मतलब विदेशी जमीन पर ही खड़े होकर उनको ललकारते हैं ये सोचे बिना कि यदि धरातल ही हट गया तो मुंह के बल गिर पड़ेंगे जबकि उसकी जगह हमें तो कुछ ऐसा करना चाहिये कि जिस तरह ‘योग’ ने अपने दम पर अपनी वैश्विक पहचान बनाई उसी तरह हमारे त्योहार, हमारे पर्व, दिवस को भी मानक की तरह इस्तेमाल किया जाये क्योंकि जो लोग इस तरह की बातें लिखकर सन्देश प्रसारित करते वे खुद अपनी जन्मतिथि से लेकर अपने हर लेखे-जोखे में इन्ही तारीखों का इस्तेमाल करते और यदि उनसे हिंदू महीने, तिथि पूछे जाये तो मुंह ताकते रह जायेंगे...

इसलिये किसी भी ऐसी मुहिम का हिस्सा बनकर लकीर के फ़क़ीर बनने की जगह यदि हम अपनी और अपनी परम्पराओं की रक्षा करते हुये अपने ही वेद-शास्त्रों के मंत्रो का अनुशरण करते हुये सर्व-धर्म समभाव का दृष्टिकोण अपनाये तो न केवल अपनी अलग पहचान बना पाएंगे बल्कि अपने धर्म  की रक्षा भी कर सकेंगे नहीं तो यूँ ही कॉपी-पेस्ट करते हुये दूसरों के मात्र अनुगामी बनकर रह जायेंगे...
   
इसी भाव को कविता में समेटने का प्रयास करते हुये कुछ लिखने का प्रयास किया हैं---

∙∙∙∙∙
माना,
नहीं हैं ये हमारा
बोले तो हिंदुओं का नया साल
जो आता ‘चैत्र प्रतिपदा’ को
मगर, जब अपने जनम-मरण तक का
सारा आकलन कर रखा
इन्हीं तारीखों में
और करते भी पालन हर जगह
इन्हीं दिन, महीनों, सालों का
फिर क्या गलत ?
अगर, मना लिया इसे भी सबके साथ
बोल दिया ‘हैप्पी न्यू ईयर’
कुछ बिगड़ तो न जायेगा
शायद, अपनी संस्कृति
अपने वेद-शास्त्रों के सूत्रों का
अनुकरण ही होगा
जो सबका सम्मान करना सिखाते
अँधेरे से अँधेरा
नफ़रत से नफ़रत
और...
आग से आग कब बुझी हैं भला
भूलो मत हम तो उस देश के वासी हैं
जिस देश में गंगा बहती हैं
जहां पर सिवई, केक, हलवा, खीर
साथ-साथ खाई जाती हैं
और जहां सब धर्म की आग
एक ही हवन कुंड में जलती हैं
तो फिर प्रेम की समिधा ही डालो न
नफ़रत का घी क्यों ???
वो भी दूसरों के कहने मात्र से
फिर क्या अर्थ रह गया
तुम्हारे नाक, कान, विवेक और
इंद्रियों का पृथक होना
इससे तो बेहतर था
महज़, ‘कठपुतली ही होते ।।
∙∙∙∙∙
         
यदि हमें अपनी संस्कृति, अपनी पहचान को बचाना हैं तो इसके लिये जमीनी प्रयास करने होंगे और इस तरह की बातों से कुछ नहीं होने वाला जब तक अंतर्मन से हम अपने आपको नहीं जानेंगे और जिस दिन ऐसा हो गया न तो देखना ‘स्वामी विवेकानंद’ की तरह विदेश में खड़े होकर भी न सिर्फ अपनी निजता की रक्षा कर पाएंगे बल्कि पाश्चात्य संस्कृति मानने वालों को भी अपने रंग में रंग लेंगे नहीं तो जिस तरह आज उनकी जुबान बोल खुद को प्रोग्रेसिव, एडवांस, मॉडर्न और न जाने क्या-क्या समझते हैं उसी तरह से उनका अन्धानुकरण करेंगे और अपनी संस्कृति का ढोल पीटते रहेंगे... हमें नहीं भूलना चाहिये कि जो सभ्यता इतने हजारों सालों में विविध शासकों और आक्रमणों से नहीं बदली वो क्या इस चमक-धमक में खो जायेगी बल्कि इस तरह से अनजाने में हम उनके ही प्रचारक बन जायेंगे तो बंद करो दूसरों का गुणगान और याद रखो सिर्फ ये एक बात---

“कुछ बात हैं कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
बरसों रहा हैं दुश्मन दौरे जहाँ हमारा...” :) :) :) !!!

_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०१ जनवरी २०१७

कोई टिप्पणी नहीं: