साथियों... नमस्कार...
यहाँ हमारा ‘दिल’ से
मतलब सिर्फ हांड-मांस का वो टुकड़ा नहीं जिसके धड़कने मात्र से हमारी जिंदगी चलती
हैं बल्कि खुदा की उस ‘नियामत’ से
हैं जहां पर, एक
पूरी ‘कायनात’ बसती
हैं... जिसमें रहती हैं नन्हीं-नन्हीं उम्मीदें तो कहीं किसी कोने में पड़ी रहती
हैं आधी-अधूरी ख्वाहिशें भी और कहीं-कहीं तो ऐसे स्वप्न भी दफ़न होते हैं जो हकीकत
तो न बन सके लेकिन पूरी तरह मिट भी न सके याने कि मुआ ‘दिल’ न
हुआ बल्कि हमारी बेशकीमती स्मृतियों को सँभालने वाला ‘लॉकर’ बन
गया और कभी-कभी तो हमे इसे ‘स्टोर रूम’ की तरह भी इस्तेमाल करते और
वो सब कुछ जिसे जीवन से निकालने का मन न करता उसे यहाँ सहेजकर रख देते जो कि ‘कबाड़ा’ तो
नहीं होता कि किसी कबाड़ी को बेच दिया जाये बल्कि ये सब वो अनमोल खजाना होता हैं जो
हमें तन्हाई में भी तन्हा होने नहीं देता और मुश्किल से मुश्किल वक़्त में भी जीने
की उम्मीद देता हैं और जब भी कभी किसी कठिन वक़्त में हम सारे जहान से हारकर
नाउम्मीद से होने लगते हैं तब इसके किसी हिस्से में से कोई भी एक तमन्ना मचलकर
बाहर आ जाती हैं और फिर अकेले में बैठकर रोती हुई आँखें भी मुस्कुराने लगती हैं तो
मुरझाई हुई निढ़ाल हसरतें भी उम्मीद की इस हल्की बूंदाबांदी से फिर खड़ी होकर लहराने
लगती हैं तो हताश होकर जमीन पर गिरे हम ज्यूँ किसी अँधेरी खोह में अचानक कहीं से
रौशनी की किरण मिल जाने पर आशा से जी उठते हैं कुछ यूँ इन बेसाखियों का सहारा पाते
ही एकदम उठकर खड़े हो जाते हैं...
वाकई ‘दिल’ के
बारे में जिस किसी ने भी ये कहा एकदम सच ही कहा हैं---
खुदा ने दिल बनाकर क्या अनोखी शय बनाई हैं
जरा-सा दिल हैं इस दिल में मगर सारी खुदाई हैं
तभी तो इसमें झांककर देख लेने से हमें कभी उस रब
के दर्शन भी हो जाते हैं ये वास्तव में जिसका घर होता लेकिन हम तो इसमें न जान
क्या-क्या समोते रहते और जरा-से इस दिल को पूरी देह समझने की भूल कर बैठते तभी तो
इसके धड़कने से या खामोश हो जाने से जीते-मरते... इसलिये यदि कभी उपर से यूँ महसूस
हो कि कुछ न भी बचा हो लेकिन, भीतर से इसके होने का अहसास बाकी रहे तो यही
समझना कि कुछ नहीं खत्म हुआ... जीवन फिर नये सिरे से जिया जा सकता परंतु बाहर से
सबकुछ ठीक नजर आये लेकिन अंतर में सब कुछ मर जाये तो उस दिन खुद को जिंदा भले
समझना मगर, बेजान
लाश की भांति ही वो जीना होगा जिसमें कोई उमंग न रहेगी... कभी देखा हैं सूखे पेड़
को जिसमें सिर्फ टहनियां शेष रहती हैं लेकिन कभी कोई बारिश ऐसी होती कि सूखी
डालियाँ भी हरिया जाती क्योंकि बाहरी रूप से जो तना हमें खोखला दिखाई देता कहीं न
कहीं उसके भीतर कोई जीवन छिपा होता जो जरा-सी वृष्टि पाते ही कोपलों के रूप में
फूट पड़ता तो जब कभी लगे कि सब कुछ खत्म हो गया मगर, ‘दिल’ की
अमानत शेष हैं तो यही समझना कि कुछ भी समाप्त नहीं हुआ... बस, उस
मौसम का इंतजार करना जब दिल की डाली पर कलियाँ खिलने लगे... :) :) :) !!!
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२७ जनवरी २०१७
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