सोमवार, 16 जनवरी 2017

सुर-२०१७-१६ : “रवायतों की आयतें... बन गयी आदतें...!!!”

साथियों... नमस्कार...

जाने कब-से वेद-शास्त्रों में लिखे गये सूत्रों के आधार पर स्त्री के गुण-धर्म, आचरण के लिये एक निश्चित परिपाटी बनी दी गयी जिसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी दोहराते-दोहराते वो उसके जींस में इस कदर घुल गयी कि जमाने बदले, नियम बदले, आधुनिकता, स्त्रीवाद और नारी सशक्तिकरण न जाने कितने तरह के अलग-अलग बड़े-बड़े वजनदार जुमले बोले गये उनकी तरह-तरह की व्याख्या की गयी लेकिन कोई भी उतना कारगर क्रांतिकारी शस्त्र साबित नहीं हुआ जो उन पुरातन बेड़ियों को पूरी तरह से काट पाये क्योंकि इन सबके बावजूद भी केवल उपरी स्तर पर ही परिवर्तन आया वो भी एकदम मामूली-सा क्योंकि बचपन से सभ्यता-संस्कृति के नाम पर अपने मन में रोपे गये बीज को भले ही उन्होंने पेड़ न बनने दिया हो लेकिन उसे अंकुरित होने से नहीं रोक पायी इसलिये जब भी कोई ऐसी निर्णायक परिस्थिति आई जबकि उसे अपने ‘परिवार’ या ‘कैरियर’ में से किसी एक को चुनना हो तो स्त्री होने के नाते अपने ‘ड्रीम्स’ को भुलाकर उसे ही समझौते का घूंट पीना पड़ा क्योंकि उसे तो घुट्टी में पिलाया गया कि ‘फैमिली’ के लिये सदा उसे ही त्याग करना हैं चाहे उसका ‘लाइफ पार्टनर’ उतना सक्षम हो या नहीं नहीं उसे अपनी काबिलियत को उससे बढ़कर नहीं दिखाना हैं वरना रिश्तों में कड़वाहट आ सकती हैं, पाणिग्रहण में बाँधी गयी गांठ कमजोर पड़ सकती हैं...

लेकिन ये किसी ने भी नहीं बताया कि उसके दूसरे पल्लू का दारोमदार उस हिस्से का भी हैं जो अगले के कंधे पर पड़ा बस, उसे तो दोनों खानदान को लेकर चलना फिर चाहे पांव लहू-लुहान हो जाये या खुद के अरमानों को मारते-मारते वही क्यों न लाश बन जाये पर, निर्जीव होकर भी अपने फर्ज में कोताही नहीं बरतनी और देखा जाये तो अधिकांश मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय घरों में तो औरत अपने लिये जीती ही नहीं उसकी तो सांसे भी गिरवी रखी होती और वो दुआ मांगती कि जब तक वो सबकी इच्छाएं पूर्ण न कर दे उसे कुछ न हो याने कि जन्म से लेकर मरण तक उसे तोते की तरह यही पाठ रटवाया जाता कि उसके भीतर ही उसके घरवालों की जान बसी इसलिये उसे खुद की रक्षा भी करनी हैं तो खुद की खातिर नहीं बल्कि उनके लिये जो उस पर निर्भर हैं जिसके पीछे हवाला धर्म-ग्रंथो का दिया जाता ताकि धर्म के भय से ही सही वो विरोध न कर सके या पाप के डर से ही सही समाज से बगावत न कर सके और यदि कर भी दी तो उसकी सज़ा भी मुकरर्र हैं क्योंकि जिन वेदों-शास्त्रों के नाम से उसे पैदा होते ही एक आदर्श नारी बनने का सबक पढ़ाया जाता वे सब लिखने वाले पुरुष ही तो हैं जिन्होंने स्त्री को त्यग-ममता-दया-क्षमा की देवी बताकर प्राकृतिक तुला के एक पलड़े पर ही सारा बोझ डाल दिया...

इन सबको निभाते-निभाते इतने युग बीत गये कि ये सब उसकी आदत बन गये जिसे उसे भूलना होगा क्योंकि ऐसा किये बिना नये अध्याय या नये सबक को याद करना आसान न होगा और चूँकि ये सब उसने नही लिखे तो ऐसे में जरूरत हैं औरत अब अपने लिये अपना ‘कानून’ स्वयं बनाये जो औरत का, औरत के लिये, औरत के द्वारा बनाया गया हो... आमीन... :) :) :) !!!
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)


१६ जनवरी २०१७

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