शनिवार, 21 जनवरी 2017

सुर-२०१७-२१ : “‘गीता बाली’ : रजतपट पर चांदनी बन छाई...!!!”

साथियों... नमस्कार...


“वह एक तरोताजा फूल थी मगर, जूही, चंपा और केतकी की तरह अभिजात फूल नहीं, खेतों की मेडों पर उगा हुआ जंगली फूल... वह गुलिस्तानों से गुज़र जाने वाला खिरामचाल नसीम नहीं, घास की गंजियों में बहने वाली तेजगाम हवा थी... वह नदी का शांत जल नहीं पहाड़ी झरने की खिलखिलाहट थी... उसमे कुछ ऐसा अनगढ़, ऐसा बेतरतीब और ऐसा बेतकल्लुफ जोश था जो दिल को छू जाता हैं और आपकी उदासी को तिनके-तिनके धुन देता हैं”

पांचवे दशक में हिंदी सिने जगत का रुपहला पर्दा जिसके जगमगाते चांदनी भरे सौंदर्य से झिलमिला रहा था वो कोई और नहीं यही जंगली फूल, तेजगाम हवा, पहाड़ी झरना और शोख़ ‘गीता बाली’ थी जिसके बारे में ये बेहतरीन कथन फ़िल्मी दुनिया के जानकार और लेखक ‘अजातशत्रु’ ने अपने विशेष आलेख में उद्दृत किया जिसे पढ़ने के बाद लगा कि इससे बेहतर तरीके से या शब्दों में भी उसे बयान नहीं कर सकती जो उन्होंने किया वाकई जिसने भी ‘गीता बाली’ को देखा और महसूसा हैं उसे ये शब्द उस पर शत-प्रतिशत खरे प्रतीत होंगे कि वो थी ही ऐसे अल्हड़, चंचल, नटखट, मस्तीखोर मगर, उतनी ही भोली-भाली और मासूम भी जिसके चेहरे का बाल-सुलभ कौतुक सहसा ही देखने वाले को मोहित कर लेता और उसकी खिलखिलाती निर्दोष हंसी का रिफ्लेक्शन सामने वाले के मुख-मंडल पर भी मुस्कान की छटा बिखेर देता उसकी यही विशेषता उसे उस दौर सभी अभिनेत्रियों से अलग करती थी

वैसे मैंने ये महसूस किया कि शुरूआती दौर की जो भी नायिकायें थी सबकी अपनी कोई न कोई एक ख़ासियत थी और वे किसी की नकल नहीं करती थी सबकी सब एकदम शुद्ध ओरिजिनल थी तभी शायद, अब तक उन्हें भूल पाना मुमकिन नहीं हुआ जबकि इस दौर में तो सब एक-दूसरे की नकल प्रतीत होती किसी के पास बमुश्किल ही अपनी कोई अदा तभी तो वही हेयर स्टाइल, वही ड्रेसेस और वही सब गिनी-चुनी स्टाइल्स किसी में कोई नयापन नहीं इसलिये देखकर भूल भी जाते लेकिन सभी पुरानी क्लासिक अभिनेत्रियों को उनके नाम उनकी फिल्म और गीतों के साथ याद रखा जाता और उस दौर में तो फ़िल्में भी आज की तरह वीकेंड के दो या तीन दिन नहीं बल्कि सालों-साल चलती थी जिनके नाम प्लेटिनम, गोल्डन, सिल्वर जुबिली के रिकॉर्ड बनते थे जो आज के इन सौ-दो सो करोड़ के क्लब से बहुत आगे की चीज़ थी जिसकी आज कल्पना भी नामुमकिन हैं

‘गीता’ अपनी शोखी, चंचलता, मांसल सौंदर्य से मन मोहती और अपनी बड़ी-बड़ी गोल-मटोल आँखों से जब देखती तो बिन बोले भी न जाने कितना कुछ कह जाती और हम मंत्रमुग्ध-से उसे सुनते रह जाते और हम पर जादू जैसा कुछ छा जाता फिर जब एकाएक वो खिलंदडपने से हंसती तो मानो वो सम्मोहन टूट जाता पर, उसमें गजब की मासूमियत और भोलापन था जो इन सबके बावजूद भी उसे कामुक नहीं होने देता था, न ही दिल में कोई बेईमानी जागती बल्कि उसका पहाड़ी झरने सा बहता शीतल रूप मन को सुकून देता और उसके नृत्य का बिंदासपन, सुकी अदाओं की मुखरता, उसकी अदाओं की अनगढ़ता हमें भी अपने साथ नाचने पर मजबूर कर देती यकीन न हो तो ‘अलबेला’ फिल्म एक बार देख ले और ‘शोला जो भडके दिल मेरा धड़के...’, ‘भोली सूरत दिल के खोते, नाम बड़े और दर्शन छोटे...’, ‘शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो... घड़ी-घड़ी खिड़की पर खड़ी तुम तीर चलाना छोड़ दो...’ गीत पर उनकी नेचरल स्टेप्स पर आप भी झूम उठेंगे क्योंकि वो एकदम शुद्ध देशी नृत्य हैं जिसमें कोई अंग्रेजीपन नहीं, अपनापन हैं और इसी तरह से ‘जाल’ के गीत ‘चोरी-चोरी मेरी गली आना हैं बुरा, आ के बिना बात किये जाना हैं बुरा...’ या ‘बावरे नैन’ का ‘सुन बैरी बलम सच बोल इब क्या होगा...?’ या बाज़ी का ‘तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले...’ गीतों पर भी उन्होंने अपने उस देशज रूप के साथ-साथ अपनी देशी अदाओं के जलवे दिखाये जिन पर दिल बेचैनी से धड़कते नहीं राहत से थम जाते हैं, नसों में कामुकता नहीं बल्कि पवित्र प्रेम की लहरें दौड़ने लगती जबकि आजकल के फूहड़ नृत्य-गीत ही नहीं उनके अश्लील बोल भी दर्शकों के भीतर के वहशी को जगा देते जिन पर लगाम जरूरी हैं भले फिल्म वाले किसी भी कुतर्क से अपने आपको सुरक्षित रखते हुए नैतिक दायित्व लेने से बचे लेकिन ये सच कि आज की फिल्मों में गंदगी का समावेश समाज में होने वाले अपराधों के लिये कहीं न कहीं उत्तरदायी हैं

‘गीता’ अपने हाथों के संचालन मात्र से नाच को गरिमा प्रदान कर देती थी और गोटी जैसी बड़ी-बड़ी आँखों की हरकतों से उसमें शोखी भी भर देती थी ऐसा था उनमें मासूमियत और चंचलता का मीठा-तीखा सम्मिश्रण जिसने उन्हें ‘गीता बाली’ बनाया भले ही फिल्मों में आना मजबूरी था लेकिन काम करने में कोई कोताही या खाना-पूर्ति नहीं करती बल्कि पूरी ऊर्जा लगा देती तो देखने वाले भी उस उत्साह से भर जाते थे यहाँ तक कि एक फिल्म में तो उन्होंने मर्द का वेश धरकर ही पूरी भूमिका अभिनीत की जिसका नाम ‘रंगीन रातें’ था जो कि संभवतः ‘माला सिन्हा’ की पहली फिल्म मानी हैं पर, उसमें भी आपको वो किरदार ही नजर आती हैं ये हमारी बदनसीबी कि वो असमय बल्कि उम्र के नाज़ुक दौर में आज ही के दिन चेचक की बीमारी की वजह से हमें छोड़कर चली गयी जिसकी वजह से हम ‘एक चादर मैली सी’ और न जाने कितनी फिल्मों ममें उनको देख नहीं सके पर, वे जो भी अपनी निशानियाँ छोड़कर गयी अब वही हमारी धरोहर हैं और सदाबहार अनिल कपूर के पिता सुरिंदर कपूर उनके निजी सचिव थे तो बोनी कलपु की फिल्मों में भी हमें शुरू में उनके दर्शन हो जाते हैं तो अब बस, यही यादें शेष... इन्ही के साथ उनको ये शब्द सुमन... :) :) :) !!!       
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२१ जनवरी २०१७

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