बुधवार, 11 जनवरी 2017

सुर-२०१७-११ : विवेकानंद अमृत वाणी : क़िस्त-०५ !!!"

साथियों... नमस्कार...


लेते हैं जन्म सब यहाँ लेकिन विरले ही जीवन के सही मायने समझ उसे सार्थक कर पाते हैं यदि इसका कारण जानने का प्रयास करे कि ऐसा क्यों हैं ? तो यही जवाब मिलता कि वो एक पवित्र आत्मा थे जो उस नेक काज के लिये ही इस धरती पर अवतरित हुये थे याने कि किसी विशिष्ट कार्य को सम्पादित करने के लिये ईश्वर किसी विशेष व्यक्ति को निमित्त बनाता हैं जो उसे अंजाम देने के पश्चात वापस उस इह्लोह में चला जाता हैं जैसे कि स्वामीजी ने भी जब अपने सभी उत्तरदायित्व पूर्ण कर लिये तो सिर्फ ३९ की नाज़ुक आयु में जबकि बहुत-से लोग तो उस उम्र तक खुद को समझ नहीं पाते उन्होंने अपने सारे निर्धारित कार्यों को तयशुदा अवधि में सफलता पूर्वक संपन्न कर महासमाधि लेकर शरीर का त्याग कर दिया परंतु इस अवधि में उन्होंने जो भी ज्ञान अर्जित किया उसे अपने साथ न ले जाकर यही सबको वितरित कर दिया ताकि दूसरे भी उसे पढ़कर उस मार्ग का अनुशरण कर सके लेकिन उनको पढ़ते-पढ़ते इतने बरस बीत गये पर, कोई भी उनके पासंग भी नहीं पहुंच सका तो क्या किसी के भी भीतर उतना सामर्थ्य या प्रबल इच्छाश्क्ति नहीं थी ? शयद, इसका जवाब ये होगा कि किसी के भी भीतर वो चाहना नहीं थी जिसने उन्हें सन्यासी बनकर अपने अपने देश की सभ्यता-संस्कृति व धर्म को विश्व पटल पर प्रतिष्ठित करने की प्रेरणा दी...

जब भी किसी महापुरुष या महानारी का जीवन चित्रण पढो तो मन में अनगिनत सवाल आते कि किस तरह उन्होंने विकट परिस्थितियों में भी अपने मनोबल को स्थिर रखते हुये अपने ‘टारगेट’ को अंजाम दिया जबकि उससे अधिक सुविधाजनक स्थितियों में भी दूसरा कुछ न कर पाया तो इसका तात्पर्य यही निकलता कि वो अपने संकल्पों के प्रति दृढ निश्चयी थे तभी तो डिगे नहीं और उन्हें अपने जीवन का उद्देश्य भी ज्ञात था तो उसे पूर्ण किये बिना वो किस तरह से रुक सकते थे भला, हमारे यहाँ मान्यता हैं कि हर किसी का जन्म किसी न किसी वजह से हुआ कोई भी बेकार नहीं जन्मा लेकिन किस व्यक्ति का जन्म किस उद्देश्य के लिये हुआ ये उसे नहीं पता तो फिर इसका ज्ञान किस तरह हो ? जो सिवाय उसके प्रति एकनिष्ठ भावना के संभव नहीं और इसका तरीका यही कि उसे जानने देह के भीतर स्थित सभी चक्रों को भेदा जाये और ये बिना ‘ध्यान’ संभव नहीं क्योंकि ध्यान का मतलब अपने को आत्मरूप में देखना फिर उस आत्मा के शरीर धारण करने के कारण की खोज कर उसे पाने जुट जाना और तब तक रुकना नहीं जब तक कि वो हासिल न हो जाए...

‘ध्यान’ का मतलब सिर्फ नयन मूंदना नहीं बल्कि मन को एकाग्र करना हैं और इस क्रिया में हम आँख इसलिये मूंदते कि उसे सर्वत्र विचरने से रोक सके, उसकी लगाम को कसकर पकड़ सके जो हमको घोड़े की तरह दौड़ाती पर, ये लगाम हैं क्या? ये समस्त ‘इंद्रियां’ जो मन को संचालित करती लेकिन जब हम मन के वशीभूत हो जाते तो फिर वो उनको मनचाहे तरीके से इधर-उधर भगाती... आज जबकि देश में युवाशक्ति का वर्चस्व हैं तो ये जरूरी कि वो ‘स्वामी विवेकानंद’ के प्रेरक जीवन और सद्विचारों से ऊर्जा ग्रहण कर अपने देश का नाम रोशन करे... केवल सरकर या संविधान पर सब जिम्मेदारी डालकर खुद अपने कान में इयर फोन लगाकर गाने न सुनती रहे... उंगलियों से मोबाइल ही न चलाती रहे...:) :) :) !!!        
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

११ जनवरी २०१७

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