गुरुवार, 5 जनवरी 2017

पोस्ट-२०१७-०५ : समीक्षा : फिल्म ‘दंगल’...!!!


साथियों... नमस्कार...

बेशक, लडकी पैदा होना किस्तम के हाथ...
लेकिन, उसे मिसालबनाना हमारे हाथ में हैं...!!!

यदि विश्वास नहीं तो एक बार दंगलफिल्म देख ले...
मगर, जरा गौर से...

अरे, तुम लड़की हो
तुम्हें हमेशा ये याद रखना चाहिये
तुम्हें ये नहीं करना चाहिये
तुम्हें वो नहीं करना चाहिये
तुम्हें ये हरकत शोभा नहीं देती
ये कैसे चल रही हो
ये क्या पहन रखा हैं
इस समय बाहर मत जाओ
ये काम लडकियाँ नहीं कर सकती

उफ़... बड़ी लंबी फ़ेहरिस्त हैं इन निषेधात्मक वाक्यों की जिनका ताना उनकी पैदाइश से लेकर अगले जनम तक दिया जाता... ऐसा इसलिये लिखा कि लडकियों के साथ आजीवन जितनी टोका-टाकी होती वो इस जन्म तो क्या दूसरे जन्म तक उसे भूल न पाती होंगी...
   
लड़कियों को यदि बचपन से ही बार-बार ये न याद दिलाया जाए कि वो लडकियाँ हैं और उनकी हर एक हरकत या बात-बात पर उनको टोका न जाए तो उनके अंदर छूपी उस शख्शियत उभरने का मौका दिया जा सकता जिसके लिये वे बनी हैं और हम भी यदि उसे इस परंपरागत चश्में से देखना बंद करे तो उसके उस स्वरुप को पहचान सकते हैं जिसे हम उनके लड़कीपने में देख नहीं पाते या देखना ही नहीं चाहते क्योंकि सदियों से हम उसे उसी तरह देखने और रखने के आदि जो हो चुके हैं जिस तरह से हमारे पूर्वज रखते आये हैं यहाँ तक कि उनके लिये तो किये जाने वाले काम और कार्यक्षेत्र तक निर्धारित कर दिये गये हैं ऐसे में उनसे कुछ अलग हटकर करने की उम्मीद रखना वाकई असाधारण काम हैं पर, ‘महावीर फोगाटने न केवल समय रहते उस काबिलियत को परखा बल्कि उसे तराशने का दम-खम भी दिखाया यहाँ तक कि इसके लिये दुनिया व समाज से उसे ताने और असुविधा का सामना भी करना पड़ा तो उसने किया और वो कर दिखाया जिसने भारतीय इतिहास में मिसाल कायम की और वो भी ऐसी, जिसकी कल्पना भी आज से पहले नामुमकिन थी...

जी हाँ, हम बात भले ही फिल्म की कर रहे लेकिन उसमें दिखाई गयी कहानी तो वास्तविक हैं फिर भले ही फ़िल्मी तड़का डालने उसमें आवश्यकता से कुछ अधिक रोमांच भर दिया गया हो लेकिन इस फिल्म को बनाने का जो वास्तविक उद्देश्य हैं आमिर खानउस पर एकदम खरे उतरे मैंने सिर्फ आमिर खानका नाम इसलिये लिया कि जिस तरह की भूमिका उन्होंने इसमें की वो जोखिम भी कोई सुपरस्टार तो कतई नहीं ले सकता क्योंकि ये चरित्र एकदम नॉन-ग्लेमरस और बेहद सहज-सरल पर, साधारण होते हुये भी जो असाधारणता की उच्च अवस्था के निकट हैं जिसे उन्होंने भांप लिया था तभी तो इस कहानी को चुना और उसे उसी तरह से पेश किया जिस तरह से चाहते थे और उस संदेश को हूबहू वैसा का वैसा दर्शक के मन-मस्तिष्क में रोपित कर सके जिसके लिये उन्हें ख़ास तौर पर जाना जाता हैं...

इस फिल्म में आमिर खानने खुद को हीरोनहीं बल्कि एक सशक्त अभिनेता की तरह प्रस्तुत किया हैं और अपनी उम्र के अनुरूप नायकत्व निभाया हैं जहाँ वे आमिर खाननहीं बल्कि महावीर फोगाटही लगे हैं और बिल्कुल सही समय पर, अपनी अभिनय की दिशा को उन्होने मोड़ लिया जबकि उनमें तो वो माद्दा हैं कि वे बढ़ती उम्र में 3 इडियट्समें कॉलेज के छात्र भी उतनी ही विश्वसनीयता से नजर आये जितने लचीलेपन से उन्होंने जवान, प्रौढ़ महावीर फोगाटको परदे पर उतारा खैर, हमारा विषय तो दंगलफिल्म के उन पॉइंट्स को उभारना हैं जो समाज से कुछ कहना चाहते हैं खासकर आधी आबादी से...

शायद, आप सबने भी गौर किया हो कि फिल्म के इन संवादों को जिनके अर्थ बड़े गहरे हैं और यदि इन्हें आत्मसात कर लिया जाए तो निर्देशक का फिल्म बनाना सार्थक हो जाये---

१. म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के... कुछ लोगों ने आपत्ति उठाई कि लडकियों की लड़को से तुलना करने से उनकी महत्ता किस तरह पता चलेगी लेकिन ऐसा नहीं हैं जब मुकाबला उनसे ही हैं तो फिर उनसे ही तो कम्पेयर किया जायेगा जिसमें बुराई नहीं बल्कि ख़ुशी की बात हैं कि जिस समाज में कन्या भ्रूण को कोख में ही मार दिया जाता हैं वहां ये साबित किया गया कि लड़की हो या लड़का दोनों बराबर हैं और आम आदमी की उसी मानसिकता पर प्रहार किया गया जिसके चलते वो लड़की के पैदा होने पर दुखी हो जाता तो अब कम से कम उसकी सोच तो बदलेगी कि उसके घर यदि लडकी हो भी गयी तो क्या वो क्या लड़के से कम हैं ।

२. गोल्ड तो गोल्ड होता है छोरा लावे या छोरी --- काश, ये बात वो लोग समझ जाये जो मानते कि लड़की चाहे कुछ कर ले या बन जाये मगर, लड़का न हुआ तो न तो वंश चलेगा और न ही स्वर्ग मिलेगा जबकि मुखाग्नि यदि लड़की दे तो आत्मा नर्क तो नहीं चली जायेगी क्योंकि लड़के का होना कोई स्वर्ग की गारंटी तो नहीं न ही इसका कोई प्रमाण केवल हमारी मान्यता ही तो हैं जिसे बदलने में ये सोच काम कर सकती हैं कि कोई भी काम बस, काम होता चाहे लड़की करे या लड़का ।

३. गोल्ड जीती तो मिसाल बण जावैगी और मिसालें दी जाती हैं बेटाभूली नहीं जाती… --- फिल्म में महावीरका अपनी बेटी से ये कहना कि वो सिर्फ ये याद रखे कि उसे कुछ ऐसा करना हैं जिसे भूलाया न जा सके एक मिसाल बनना हैं तो अनजाने ही वो हम सबको भी ये बताते कि हम जो अपनी सीमाओं में बंधकर दूर तक देखना या चारदीवारी से निकलना या लक्ष्मण रेखा लांघना भूल जाते या अपने कम्फर्ट बोले तो सेफ ज़ोन में रही बने रहते बाहर नहीं निकलते वो भी उस काम के लिये जिसे कर मिसाल बन सकते तो, तो इस तरह हम ये ऐतिहासिक अवसर खो देते जिसे उन्होंने पा लिया । 

इसी तरह फिल्म के कुछ दृश्य भी बहुत कुछ कहते यदि हम उनको सुन पाये ---

दृश्य १ : महावीर फोगाटका अपनी बेटियों को नॉन-वेज खिलाना जो दर्शाता कि हम जो लड़के-लड़की की परवरिश ही नहीं उनके खान-पान में भी भेदभाव करते यदि उसे भी बंद कर दे तो शारीरिक तौर पर भले ही वो एक समान न बन पाये क्योंकि उनकी ताकत या शरीर सौष्ठव प्राकृतिक हैं लेकिन कम से कम उनको हीन भावना से तो बचा सकते ।

दृश्य २ : लड़कियों को उनके तयशुदा कामों से मुक्ति दिलाकर लक्ष्य की तरफ मोड़ना जो सबसे संदेशात्मक हैं क्योंकि हमारे समाज में हमने मान रखा कि लडकियों का काम चूल्हा-चौका संभालना और गुडियों से खेलना हैं तो हम शुरू से उन्हें इसके लिये ही प्रेरित करते हमने कभी उनको इस तरह से ट्रीट किया ही नहीं इसलिये तो हर कोई मिसाल नहीं बन पाता हम उसे दायरे में सीमित कर उससे महज़ लड़की होने की अपेक्षा रखते जबकि महावीरने उनको पहलवान बनाने की ठानी और बनाया भी तो यदि हम बचपन से उनके मन में लड़की बनने की बात न डाले तो वो भी लड़की की जगह कुछ और बन सकती क्योंकि लड़की बनाकर तो उन्हें भगवान् ने भेजा ही हैं हमें तो उनको वो बनाना, जो बनने वो जन्मी हैं पर, अफ़सोस हम तो उसे बात-बात पर ये याद दिलाते कि वो लड़की हैं जबकि लड़कों से कहना भूल जाते कि वो लड़के हैं इसका मतलब उन्हें सब कुछ कर गुजरने का लाइसेंस नहीं मिल गया जिसे अमूमन वो पैदा होते ही मान लेते हैं ।   
सबसे ख़ास बात हमें इसे महज़ फिल्म समझकर खारिज नहीं करना हैं क्योंकि भले ये फिल्म हैं लेकिन उसका आधार तो असली कहानी हैं और वो किरदार जो पर्दे पर हमने देखे हमारे सामने साक्षात् खड़े हैं जिनसे हम प्रेरणा ले सकते क्योंकि गीता-बबिता को पहलवान बनाने वाले पिता महावीरको तो वास्तविकता में अधिक कठिनाइयो का सामना करना पड़ा होगा क्योंकि वे तो उस प्रदेश के हैं जहाँ स्त्रियों का प्रतिशत सबसे कम हैं फिर भी उन्होंने अपनी दोनों बेटियों के माध्यम से अपना वो सपना पूरा किया जिसे जरूरी नहीं कि बेटा होता तो कर ही देता शायद, इसलिये फिल्म में उनके भतीजे का किरदार भी रखा जो ये सब नहीं कर पाया...

इस बार हम ये कहकर भी नहीं बच सकते जो अमूमन इन मौको पर कहते कि अरे, वो लोग तो पैसे वाले थे तो उनके लिये क्या मुश्किल क्योंकि महावीरभी एकदम आम आदमी की तरह नौकरीपेशा और किसान था लेकिन जिस तरह से उन्होंने हर तरह की परेशानियों से हार न मानते हुये अपने लक्ष्य को बदला नहीं वो काबिले तारीफ़ हैं... हम अक्सर सामाजिक ढांचे, आर्थिक दिक्कतें और अपने कमजोर संकल्प से ही हार जाते और ऐसे में जब कोई इस तरह के उदहारण देता तो हम उसे कभी फ़िल्मी या कभी किस्मत या कभी कहानी या कभी  अमीरी का बहाना लेकर खुद को पाक-साफ़ बताते पर, इस बार ये कहने का चांस नहीं कि ये सबसे मुश्किल समाज से उठे नायक-नायिकाओं की वास्तविकता हैं...

अंत में इतना ही कहूँगी कि लडकियों को लड़की समझना बंद करे... उसे उस फॉर्मेट से आज़ाद करे... उसकी परवरिश, उसका रहन-सहन, उसकी चाल-ढाल, उसका खान-पान, उसकी हर एक छोटी-छोटी बात पर उसे टोकना बंद करे... उसे लडकीनहीं मिसालबनाये... जो इस फिल्म का मूल उद्देश्य और बखूबी उसे सिद्ध भी किया गया... मेडलिस्ट पेड़ पे नहीं उगतेउन्हें बनाना पड़ता हैप्यार सेमेहनत सेलगन से.धाकड़ या मिसाल पैदा नहीं होती... बनाई जाती हैं... समझे के नहीं... :) :) :) !!!                             
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

०५ जनवरी २०१७

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