मंगलवार, 10 अक्तूबर 2017

सुर-२०१७-२८१ : आया एक विशेष दिन... याद आते जब कलाकार तीन...!!!


१० अक्टूबर...
कहने को तो केवल एक आम दिन
मगर, इसे ख़ास बनाती
इससे जुड़ी विशेष शख़्सियत तीन
यूं देखें तो दो जीवन
इस दिन असमय बीच राह में ही
हमको रोता छोड़ चले गये
जिनको भूलना नामुमकिन हैं
क्योंकि, इनसे हम सबकी ही
न जाने कितनी हसीन यादें जुड़ी हुई हैं...

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सबसे पहले जिक्र
मानवीय संवेदनाओं को
रजत पर्दे पर हूबहू साकार करने वाले
अभिनेता, निर्देशक और अद्भुत कलाकार
जिन्होंने अल्पायु में मौत को खुद लगे लगा लिया
वज़ह तो कहने को कई हैं
लेकिन, हकीक़त तो बस,
उसे ही पता जिसने आज ये निर्णय लिया
उसे नहीं पता कि उसके इस कदर मायूस होकर
बिना कुछ कहे हमको छोड़कर जाने से
हम सबके दिलों पर क्या गुज़री
किस तरह हम उन पलों को कोसते
जब उन्होंने आवाजें तो दी बहुत
बात भी कहना चाही दोस्तों से
लेकिन, नियति को यही मंजूर था
तो न किसी ने वो आवाज़ सुनी
न किसी को अहसास ही हुआ कि
ऐसा कुछ दर्दनाक हादसा घटित हो चुका
अगले दिन सुबह सबको ये दुखद खबर मिली कि
भावुक, प्रेमिल हृदय बहुमुखी प्रतिभा के धनी
हिंदी सिने जगत को
अप्रतिम बेमिसाल कृति के रूप में
कागज़ के फूल, प्यासा, साधब बीबी और गुलाम जैसी
कालजयी फिल्में देने वाले
अमर फ़िल्मकार 'गुरुदत्त' ने ख़ुदकुशी कर ली
जिसने सुना हतप्रभ रह गया
जेहन को मानो हज़ार वॉट का झटका लगा
पत्थर का बुत बना वो खुद को संभाले खड़ा रह गया
उफ्फ्फ, ये क्या हो गया ???
इतनी कम उम्र में इतना प्रतिभाशाली कलाकार
रंगीन माया नगरी की चमक-दमक
ग्लैमर की चकाचौंध और आकर्षण से हाथ छुड़ा
घुप्प अंधकार में विलीन हो गया
अवसाद के वो कमजोर पल
जिसने उसकी सोचने-समझने की शक्ति
उसके भीतर दौड़ती ज़िंदगी
सब पर एकाएक विराम लगा दिया ।

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चिट्ठी न कोई संदेश
जाने वो कौन-सा देश
जहां तुम चले गये...
जिसने इन शब्दों को जीवन दिया
इनमें वो जज़्बात भरे कि सुनने वाला
उस अनजाने दर्द को महसूस कर सके
उस पीड़ा की कंपन अपने भीतर उतार सके
वही जीवन के सफ़र को अधूरा छोड़
हमें अपनी मखमली आवाज़ की सौग़ातें सौंप
एक हृदयाघात से
अकस्मात ऐसे जहान में चला गया
जहाँ से फिर कोई वापस न लौटता
बस, शेष रह जाती उसकी स्मृतियां
जिनके सहारे दिन गुजारना होता
यदि वो कोई साधारण इंसान तो फिर भी
उसे भुलाया जा सकता हैं
लेकिन, जब वही लाखों-करोड़ों दिलों का करार हो
तब खुद को समझना
इस बात को स्वीकार करना
कितना मुश्किल होता
ये वही समझ सकता जिसके लिये
वो शख्स उसके जीवन का हिस्सा हो
ऐसा ही सहज-सरल लुभावना व्यक्तित्व थे
ग़ज़ल गायक 'जगजीत सिंह'
जिनकी लरज़ती आवाज़ के अनेकों दीवाने हैं
जो आज उनके गाये गीत, ग़ज़ल और टप्पे सुनकर
उनकी रूहानी उपस्थिति से खुद को मनाते
क्योंकि उनके दर्दीली स्वर में वो उन्हें पा लेते
उन क्षणों को दुबारा जी लेते
जो कभी पिरोये थे उन यादों की लड़ियों में
साधे थे उन पके हुए सुरों के साथ
अब बेजान से वो तरसते
तन्हाई में पुकारते उनको कि आ जाओ
काश, ये मुमकिन होता
बुलाने से जाने वाले लौटकर आ जाते
पर, ये असंभव तो इस कल्पना से ही
खुद को सदा बहलाते हैं
कि उनकी गज़लों में उनको पाते हैं ।

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‘उमराव जान’ कहूँ उसे या
फिर कहूँ फिल्मी दुनिया की शान
'रेखा' हैं जिस अदाकारा का नाम
मादक सौंदर्य से दमकता जिसका रूप
जिसकी बेमिसाल अदाकारी
जिसकी मनमोहक अदायें
देखने वाले को मदहोश कर डालती
ऐसी अज़ीम सम्मोहक व्यक्तित्व की मल्लिका हैं वो
जिसने यूं तो मजबूरी में
अभिनय की दुनिया में प्रवेश किया
और नासमझ इतनी कि सबने उनका शोषण किया
पर, कटू अनुभवों ने उसको इतना समझदार बना दिया
कि लोगों ने उससे ये हुनर सीखा
आज भी सुंदरता का मापदंड उसे माना जाता
बढ़ती उमर के संग उसका जलवा भी बढ़ता जाता
किसी को लगती पहेली तो किसी को सहेली
समझ न सका कोई उसे अब तक वो हैं
कभी सहज-सरल सीधी तो कभी वक्र ‘रेखा’
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इन तीनों शानदार कलाकारों को आज के दिन शब्दों की यही अनमोल सौगात पेश करती हूँ... :) :) :) !!!
        
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१० अक्टूबर २०१७

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