‘शीतल’ ने अपने जीवन में जो कुछ भी चाहा वो पाया
जिसका श्रेय वो अपने माता-पिता और उनकी उत्तम सीख व संस्कारों को देती थी जिसकी
वजह से उसने बचपन से ही उसने अपने जीवन में कड़े अनुशासन, दृढ़ इच्छाशक्ति, सतत
प्रयासों सहित उस अदृश्य शक्ति के प्रति ‘प्रार्थना’ को भी शामिल कर लिया था जिसने
सदा हर परिस्थिति में उसकी सहायता की और जो भी उसने उन क्षणों में माँगा उसे दिया
तो आज भी उसी विश्वास से उसने अपने प्रभु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुये मन
ही मन अपनी आत्मिक इच्छा दोहराई...
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ओ प्रभु...
बेनूर थी
तेरे दीदार के बिना
ये आँखें मेरी
यूँ तो नज़ारे कई थे
पर,
उनको मानी तो तुमने दिये
तेरे दर्शनों से खुलती
और बंद होती रही ये सदा
बस,
अब यही दुआ मांगती
तेरा नाम जपती
हर सांस आती-जाती
जिन नैनन में न बसा हो
रूप तेरा सलोना
व्यर्थ हैं उनका होना
मैं रहूँ न रहूँ इस जहां में
मगर, ये देखती रहे
दिव्य स्वरूप तेरा
तुम कुछ ऐसा कर देना
बाद मेरे इन अँखियन को
तेरे किसी सूरदास सम
भक्त को दे देना
हो जाये कृपा इतनी
फिर मुझे जग से क्या लेना
जीते जी पाऊं शरण तेरी
मरकर भी मिले चरणों में ठिकाना
जीवन में यही रहा पाना
तेरा दर छोड़कर नहीं कहीं जाना
ऐ प्रभु तू ही बस, मेरा सहारा
यही इन आँखों ने माँगा
पूरी जरूर करना तुम ये मनोकामना
'इदं
न मम' सब
कुछ तो हैं तेरा
तेरा तुझको अर्पण कर
चाहूँ इस दुनिया से बहुत दूर जाना ।।
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जीवन का भरोसा नहीं न जाने कब आखिरी सांस आ जाये
तो उसके पहले ही अपनी मनोकामना यदि उससे ज़ाहिर कर दी तो वो स्वतः ही उसके लिये राह
निर्मित करेगा जैसा कि हमेशा किया हैं... उसकी हर चाह को उसने अपना आशीर्वाद दिया
हैं... क्योंकि उसके परिवार से उसे केवल बहुत लाड़-प्यार, बेहतर पालन-पोषण और
सुविधायें ही नहीं मिली उसके साथ ही ऐसे सुसंस्कार मिले जिसने उसे ईश्वर की
अवहेलना करना नहीं सिखाया बल्कि इस संसार के निर्माता के प्रति कृतज्ञ होना भी सिखाया
हैं जिसका नतीजा कि उसे कभी-भी नकारात्मकता या अवसाद का सामना नहीं करना पड़ा कि
अंतर में सब कुछ बेहद स्पष्ट हैं फिर भला संशय या नफ़रत किस तरह अपनी जगह बनाये...
आख़िर, आस्था जटिलताओं को सहज बनाती न कि और उलझाती हैं ।
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०६ अक्टूबर २०१७
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