‘मुक़्तदा हसन निदा फ़ाज़ली’ भले ही इस नाम से
कोई परिचित न हो लेकिन, उनकी शायरी किसी ने न सुनी हो ये लगभग असंभव ही हैं
क्योंकि उनकी कलम से ऐसे नायाब शेर और अलफ़ाज़ निकले जिन्होंने दिलों के हर ज़ज्बात
को बयान किया फिर चाहे वो रूमानी हो या आसमानी उन्होंने इस तरह से उसे सफे पर उतार
दिया जैसे कोई माला में फूल पिरोता हो बड़ी एहतियात से कि वो बेतरतीब न लगे और एक
सुंदर माला तैयार हो तो इतनी नाज़ुकी से लिखी गयी बात भला किसी नाज़ुक दिल को क्यों
न छुये एक बानगी देखिये...
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए
बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे
धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
ज़िंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो
मासूमियत को इस तरह से किसी ने भी पहले कभी
अभिव्यक्त नहीं किया जिस तरह से उन्होंने हमको ये अहसास कराया कि ये बचपन कितना
बेशकीमती हैं जिसे हम हरदम टोकते रहते और बड़े होकर उन्हीं को मजहबों में बाँट देते
जरुर ऐसा ही कुछ देखकर उन्होंने ये लिखा होगा...
कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई है
सब ने इंसान न बनने की क़सम खाई है
मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें
हैं
जुदा जुदा हैं धर्म इलाक़े एक सी लेकिन ज़ंजीरें
हैं
गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया
होते ही सुब्ह आदमी ख़ानों में बट गया
इंसानियत को ही एकमात्र मज़हब का दर्जा दिलाने ये
उनका अपना प्रयास था और किसी भी कलमकार का यही दायित्व बनता कि वो अपनी कलम का
उओयोग समाज और देशहित में करे न कि अपने स्वार्थ को साधने में इसलिये उन्होंने यदि
उसे पेशे के तौर पर अपनाया तो अपने फर्ज़ को समझते हुये मानव संबंधो की भी बातें और
मुहब्बत जैसे पाकीज़ा अहसास को भी अपने शब्दों से यूँ नवाज़ा...
दिल में न हो जुरअत तो मोहब्बत नहीं मिलती
ख़ैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता
वाकई, बड़ी अजब शय हैं मुहब्बत जो सबको हासिल
नहीं होती कि चाहने मात्र से ही ये दामन में नहीं आती वो तो खुदा की नेमत गर, न हो
आपके हिस्से में तो फिर कितनी भी कोशिशें कर ले कोई हासिल नहीं होती तो उसी न पाने
के दर्द को इतनी खुबसूरती से उन्होंने कागज़ पर उतारा कि इसे सुनकर भीतर कोई खालीपन
महसूस होता और उस पर झूठे प्यार के लिये इंसान के स्वाभिमान को भी तिलांजलि न देने
या आँखों में चुभती किसी अधूरे ख्वाब की किरचों को शब्दों में इस तरह से ढाल
दिया...
बदला न अपने-आप को जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे
दुनिया न जीत पाओ तो हारो न आप को
थोड़ी बहुत तो ज़ेहन में नाराज़गी रहे
ऐसे हरदिलअजीज और सजग शायर को आज उनके जन्मदिवस
पर मेरी ये शब्दांजलि...
●●●---------
दुनिया फ़क़त
जादू का ख़िलौना हैं
माँ बेसन की सौंधी रोटी पर
खट्टी चटनी समान
भले रोये बेटा परदेस में
सुन लेती माँ बिन चिट्ठी बिन तार
मासूम रोते बच्चे को हंसाना
मज़ीद सबाब का काम
चाहे गीता पढ़ो या कुरआन
गर, न समझे प्रेम तो सब बेकार
तो होश वालों सुनो
बेखुदी का मजा चखो
ज़िंदगी को जानने इश्क़ करो
चुप-चुप रहकर ख़ामोशी को
ख़ामोशी से बात करने दो
ख्वाब में ही सही मगर, जमीं
पर
जलता हुआ महताब देखो
अपना ग़म लेकर कहीं न जाओ
गम को ही हयात बनाओ
हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी
पर, कभी किसी को नहीं मिलता
यहाँ पर मुक़म्मल जहान
एक ही तन में बसते हैं तीनों
सीता, रावण और राम
फिर भी न समझे नादान इंसान
दिये जिसने अहसासों को
इतने सारे अलहदा फ़लसफ़े
चला गया छोड़कर वो सभी सफे
उसके बिन कायनात अधूरी हैं
चाहे कहीं भी चले जाओ
लगता कि उसकी ही महफ़िल हैं
'निदा
फ़ाज़ली' की
शायरी से
रोशन ये सारी साहित्य नगरी ही हैं ।।
--------------------------------------------●●●
न जाने कितनी फिल्मों में उन्होंने गीत, गज़ल
लिखे तो न जाने उनकी कितनी ही गज़लों को ग़ज़ल सम्राट कहलाने वाले ‘जगजीत सिंह’ ने
अपनी आवाज़ से जीवंत किया जो अब उनकी स्मृति के रूप में हमारे पास मौजूद हैं... और सदैव
रहेंगे...
सूरज को चोंच में लिए मुर्ग़ा खड़ा रहा
खिड़की के पर्दे खींच दिए रात हो गई
इस तरह से हम हर सुबह ही दिन को रात बना देते
लेकिन सोचा नहीं कभी कि इसे यूँ शेर में तब्दील किया जा सकता तो ये हूनर सबको नहीं
हासिल मगर, जिसको था अब वो रहा नहीं तो उसके इन्हीं अल्फाजों का मान रखा जाये और पने
तरीके से उन्हें श्रद्धांजलि दी जाये... :) :) :) !!!
_______________________________________________________
© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१२ अक्टूबर २०१७
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें