रविवार, 1 अक्तूबर 2017

सुर-२०१७-२७२ : बचपन से बुढ़ापा... जीवन का अद्भुत फलसफ़ा...!!!



आये दिन अख़बार के किसी कोने में एक ऐसी दिल दहला देने वाली खबर होती जिसे पढ़कर अहसास होता कि हमारे वो बुजुर्ग जिन्होंने हमें ऊँगली थामकर चलना सिखाया, न जाने कितनी अच्छी-अच्छी बातें सिखायी और अनगिनत कहानियां सुनाकर हमारा दिल भी बहलाया वही आज हमसे ही दो बातें करने को तरसते कि हमारे पास उनके लिये जरा भी वक़्त नहीं तो अक्सर ही हम किसी न किसी बहाने से उनको टालते रहते जिसकी वजह से वो अकेले तन्हाई का सामना करने मजबूर हो जाते उस पर जुल्म तब होता जब संतान अपने वृद्ध माता-पिता को जब उनकी सर्वाधिक जरूरत होती तब उन्हें एकाकी छोड़कर दूसरे देश चले जाते ऐसे में वो उसे देखने को भी तरह जाते फिर इसी तरह अख़बार की सुर्ख़ियों में कहीं ये पता चलता कि अनवरत अथक इंतजार में उनकी देह बेजान हो गयी जिसका पता अगल-बगल रहने वालों तक को न हुआ

ऐसे में कई सवालात खड़े होते कि आधुनिक जीवन शैली ने हमारी संस्कृति से सयुंक्त परिवारों की परंपरा को ही खत्म नहीं किया बल्कि हमें अपने बुजुर्गों और माता-पिता से भी बहुत दूर कर दिया कि अब औलादें इतनी खुदगर्ज हो चुकी जो ये समझती कि उन्हें जन्म देकर माँ-बाप ने कोई अहसान नहीं किया और न ही उनका पालन-पोषण करना या उनकी हर तरह की फरमाइश पूरी करना या उन्हें पढ़ाना-लिखाना अपने पैरों पर खड़ा करना उनका फर्ज़ था इस एकतरफ़ा सोच में उन्हें एक पल भी ये ख्याल नहीं आता कि उनका अपने उन्हीं माता-पिता के प्रति भी कोई फर्ज़ बनता हैं क्योंकि ये तो हर पालक का दायित्व लेकिन अब उनकी देखरेख के लिये वो अपना भविष्य तो दांव पर नहीं लगा सकते और न ही अपने कैरियर में ही समझौता कर सकते जिसका खामियाज़ा बुढ़ापे में उन्हें अकेले रहकर भुगतना पड़ता कि वे तो अपने बच्चों का बुरा सोचा नहीं सकते तो वही समझौता करते हुए इस फैसले को स्वीकार करते

फिर एक दिन वही बच्चे उनके मौत की खबर पढ़कर भी पछताने की जगह ये सोचते कि इन्हें आज ही का दिन मिला था मरने को थोड़ा रुक जाते तो वो अपना जरूरी काम निपटा लेते अब उनकी वजह से बेकार ही दो-चार दिनों का नागा होगा तो ऐसी सोच के पीछे आज की ये पश्चिम जीवन शैली दोषी हैं जिसे चकाचौंध में अपना तो लिया पर, उसके इन साइड इफेक्ट्स के बारे में नहीं सोचा और यदि कोई कहे भी तो उसे उसके कर्तव्यों का ज्ञान कराने लगते इसी तरह की परिस्थितियों पर गहन विचार-विमर्श करने के बाद आज के दिन को ‘अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया जिसे सिर्फ मनाना नहीं इस पर चिन्तन भी करना हैं कि बचपन से बुढ़ापे का सफ़र हम सबको ही तय करना हैं तो हम ही ये निश्चित करे कि क्या हमें अपना भविष्य भी इसी तरह अख़बार की न्यूज़ के रूप में देखना हैं या फिर अपनी संतान को इस तरह से संस्कारित करना हैं कि वो अपने बुजुर्गों का सम्मान करे और अपने माता-पिता को भी बोझ नहीं बल्कि दोस्त समझे तो जीवन के खुबसूरत पड़ाव बोझिल नहीं मजेदार बन जायेंगे और जीवन का अंतिम सोपान सज़ा नहीं बल्कि मज़ा होगा
            
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

०१ अक्टूबर २०१७

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