शनिवार, 28 अक्तूबर 2017

सुर-२०१७-२९९ : लघुकथा : ‘हेलमेट’ !!!


दादाजी, आप बाहर जा रहे हो हेलमेटतो लगा लो...

बेटा, कहना बेकार हैं कोई फर्क न पड़ेगा तुम्हारे दादाजी को हम तो इतने सालों से कह रहे कभी न सुनी हमारी बात अब तो घर में सबने कहना भी छोड़ दिया ।

क्यों दादाजी, आप क्यों नहीं मानते सबकी बात आपके भले के लिये ही तो कहते सब, बोलिये न, क्यों नहीं पहनते उसे?

दादाजी मुस्कुराये और फिर दादीजी के पास जाकर खड़े होते हुए बोले, कौन कहता मैं 'हेलमेट' नहीं लगाता अपनी माँ के सर पर देखो रोज ही होता...

पापा, वो तो सिंदूर हैं माना वो आपकी लंबी आयु के लिये ही माँ लगाती पर, उससे आपकी रक्षा कैसे होगी यदि कभी कुछ होना ही हुआ तो 'सिंदूर' माथे पर ही सजा रह जायेगा और अनहोनी हो जायेगी ।  

बेटा, यदि कुछ होना ही होगा तो फिर हेलमेटभी न बचा पायेगा नहीं तो इस सिंदूरका विश्वास ही मेरी रक्षा के लिये काफी, ये मेरा संबल जो मुझे ताकत देता जिसे बड़ी आस्था के साथ तुम्हारी माँ रोज लगाती और ये प्रतिदिन मुझमें जीने की उमंग जगाता इसलिये उस हेलमेटकी मुझे कभी जरूरत महसूस नहीं होती...

पापा का ये अटूट विश्वास देख फिर उसकी कुछ कहने की हिम्मत न हुई... वो उन दोनों के आपसी प्रेम की मजबूती देखकर अपने रिश्ते के बारे में सोचने लगा जहाँ ऐसा कोई भी जज्बा नहीं जो उसमें जीने की उमंग जगाये कि उसकी आधुनिक बीबी तो अपने सुख की खातिर उसे और उसके मासूम बच्चे को छोड़कर चली गयी पीछे रह गयी तो वही सिंदूर की डिबिया जिसे देखकर उसे पिता जीते और वो खुद को बेजान महसूस करता आज उसे सिंदूरकी ताकत का वास्तविक अहसास हुआ ।   

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२८ अक्टूबर २०१७

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