रविवार, 8 अक्तूबर 2017

सुर-२०१७-२७९ : आज भी हैं प्रासंगिक... ‘मुशी प्रेमचंद’ के चरित्र काल्पनिक...!!!



साहित्य को समाज का दर्पण इसलिये कहा जाता हैं कि प्रत्येक कालखंड के साहित्य में उस दौर के सामाजिक परिवेश और उस काल की सामाजिक व्यवस्था के अतिरिक्त उस समय के रीति-रिवाज़ और परम्पराओं का भी पता चलता हैं तभी तो एक सच्चा व ईमानदार कलमकार अपनी जान पर खेलकर भी वही लिखता जो उसने देखा या भोगा ताकि आगे आने वाली पीढ़ी को सच्चाई का पता चल सके ऐसे ही एक बेहद निर्भीक सत्यवादी और दूरदर्शिता से भरे लेखक थे ‘धनपत राय’ या ‘मुंशी प्रेमचंद’ जिनकी अनगिनत कहानियों और ख्यातिलब्ध उपन्यासों की वजह से उन्हें ‘कथा सम्राट’ का ख़िताब हासिल हुआ हैं कि उन्होंने भिन्न-भिन्न चारित्रिक विशेषताओं व पृथक मानिसकता वाले ऐसे पात्रों को अपनी कलम के जरिये जीवन दान दिया जो सहज-सरल ही नहीं बल्कि कुटिल व असामान्य भी थे कि हर तरह के युग में नायक और खलनायक एक साथ ही होते हैं कितना भी महिमामंडन किया जाये लेकिन, दुष्चरित्र कभी भी पावन नहीं हो सकता तो ऐसे में जिस तरह का प्रचलन आजकल देखने में आ रहा कि लोग दुष्ट-दानवों को महापुरुष की भांति प्रस्तुत कर रहे पर, ये भूल रहे कि उनके ही घर में यदि ऐसा एक भी विलेन पैदा हो जाये तो फिर सर फोड़ते नजर आयेंगे क्योंकि दूसरों के दामन पर छींटे उड़ाना बहुत आसान लेकिन जब वो अपने ही आंचल का सिरा हो तो फिर उसे छिपाने का प्रयास किया जाता हैं

उत्तरप्रदेश की भूमि धन्य हैं जहाँ ३१ जुलाई १८८० को ‘धनपत राय’ का जनम हुआ जिन्होंने गुलाम भारत में पैदा होकर भी अपनी कलम या विचारधारा को कभी भी किसी का गुलाम नहीं होने दिया और बेबाक अपने मन की बात को लिखा फिर भले ही उनकी किसी किताब को प्रतिबंधित किया गया हो या सरकार द्वारा उनकी किताबों की प्रतियों को जला दिया गया हो लेकिन, उन्होंने समाज की वास्तविकता को सामने लाने की ठानी तो फिर हर तरह की मुश्किलों का सामना करने के बाद भी वे अनवरत लिखते रहे । वैसे भी कहा जाता कि ऐसे कठिन हालातों में लिखना ही तो एक लेखक का धर्म होता हैं कि वो विपरीत परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना ले और जो न बना सके तो भी उनके अनुरूप न लिखे जो सत्तासीन हो क्योंकि इस तरह का लेखन आने वाली पीढ़ी को दिग्भ्रमित कर सकता हैं तो इस तरह की सोच ने उनको भीतर से मजबूती प्रदान की । जिसका नतीजा हम उनकी लेखनी में देख ही रहे कि आज इंटरनेट के ज़माने में भी वो सर्वाधिक पढ़े जाने वाले लेखकों की सूचि में शामिल हैं जबकि यदि आज के साहित्य के हिसाब से आने वाले समय में जब समाज का आंकलन किया जायेगा तो वो अंधों के हाथी के समान साबित होगा कि सच लिखने का तो किसी में साहस नहीं और बिकी हुई कलमों से आप ऐसी उम्मीद भी नहीं कर सकते और यदि सोशल मीडिया को आधार बनाया जाये तो निसंदेह भावी पीढ़ी पगला जायेगी कि इतना विरोधाभास उसे किसी भी एक सोच पर कायम न रहने देगा ।         

‘प्रेमचंद’ ने बच्चे, युवा और वृद्ध सभी को अपनी कहानियों में स्थान दिया और हर तरह की कथा लिखने का प्रयास किया कि सभी वर्ग के लोग उसे पढ़ उसका आनंद ले सके और इतनी सरस भाषा में उनकी व्याख्या की कि वे जेहन में शब्दशः अंकित हो गयी और पाठ्यक्रम में भी उनको स्थान दिया गया तो हम सब उन्हें पढ़कर न केवल बड़े हुये बल्कि अपने हृदय के किसी कोने में उनको सहेजकर भी रखे हुये हैं । आज यदि हम उनका आंकलन करने की कोशिश करे तो पाते हैं कि उन्होंने समकालीन अंग्रेज शासन के खिलाफ़ भी अपनी कलम को जंग नहीं लगने दिया क्योंकि यदि वे आज़ादी के भरोसे बैठे रहते तो फिर कभी न लिख पाते कि गुलाम शासनकाल में ही जन्मे और अपना कार्य पूरा कर चले भी गये तो इसी तरह यदि हम समय के अनुकूल होने का इंतजार करते रहेंगे तो फिर अपने सुनिश्चित कामों को कभी नहीं कर सकेंगे इसलिये जो भी करना चाहते वो उसी वक़्त कर ले कि समय का पहिया सिर्फ आगे ही घूमता उसमें रिवर्स नहीं लगता हैं । कभी-कभी लगता कि काश, वो आज हुये होते तो जीते-जी उनका सही मूल्यांकन हो पाता और जो भी सम्मान या ख़िताब उनको आज हासिल हो रहे हैं वो उसी दौरान मिल सकते थे कि उनके समय में तो उनको उनका वो स्थान न मिल सका जिसके वो हकदार थे कि वो शासन के हिसाब से इतिहास का एक काला अध्याय था जबकि लेखन के मामले में उसे ‘स्वर्णिम काल’ माना जाता कि उस समय प्रतिभाओं की कमी नहीं थी पर, अवसर आज की तरह उपलब्ध नहीं थे ।      

बड़े अभाव में उन्होंने जीवन गुज़ारा पर, अपनी कलम पर उसका प्रभाव नहीं आने दिया और अनवरत साधना करते हुए आज ही ८ अक्टूबर को देह त्याग दी तो आज उनकी पुण्यतिथि पर उनको उनके सभी पाठकों की तरफ से ये शब्दांजलि... :) :) :) !!!
        
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

०८ अक्टूबर २०१७

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