गुरुवार, 26 अक्तूबर 2017

सुर-२०१७-२९७ : कलम ने जिसकी निडर पत्रकारिता की परिभाषा गढ़ी... वो हैं ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’ !!!



अंग्रेजों ने ‘भारत’ को गुलाम तो बनाया ही साथ ही ये भी प्रयास किया कि यहाँ के लोग उनकी खिलाफ़त न कर सके और एकजुट होकर उनके विरुद्ध उठ न खड़े हो तो ऐसी स्थिति में यदि कोई भी आवाज़ उठाता या दूसरे लोगों को जगाने का प्रयास करता तो उसे सदा-सदा के लिये खामोश कर दिया जाता लेकिन ये तो भारत माता के सपूत थे जो अपनी जान की बाजी खेलकर भी उस जंग को जीतना चाहते थे जिसका लाभ भी उन्हें न मिलना था पर, मन में कहीं न कहीं ये सोच थी कि भले हम जीवित न रहे लेकिन हमारी आने वाली पीढियां, हमारी संतति को इस तरह के माहौल में अपना जीवन न गंवाना पड़े तो उन अनदेखी संतानों के लिये उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे दी जो आज उनको ही न तो याद करते और न ही उनके प्रति मन में किसी तरह का कृतज्ञता का ही भाव रखते उन्हें तो अहसास होता कि उन्हें आजादी तश्तरी में सजी हुई मिली तो ये किसी का अहसान नहीं उनकी किस्मत हैं कि उन्होंने स्वतंत्र भारत में जनम लिया तभी तो २०० सालों की परतंत्रता में बिताये गये अपने ही पूर्वजों के उन कठिनाई भरे दिनों को मात्र ७० सालों में ही यूँ बिसरा दिया जैसे कि वो वाकी इतिहास में वर्णित कोई कपोल कल्पना हो बल्कि आजकल तो उन ऐतिहासिक तथ्यों को भी अपनी तरह से तोड़-मरोड़कर पेश करने का नया प्रचलन शुरू हो गया जो इतना भ्रामक हैं कि आने वाली पीढ़ी को तो ये सब मिथ्या प्रतीत होने लगेगा कि एक तो वैसे ही उनकी इसमें कोई रूचि नहीं दूसरे उनको अपने आप से फुर्सत नहीं तो ऐसे में इन असली नायकों की गाथाओं को पुनः स्मरण करना अत्यंत आवश्यक व प्रासंगिक हो चुका हैं

‘गणेश शंकर विद्यार्थी’ एक ऐसा ही नाम जिन्होंने आज ही के दिन २६ अक्टूबर १८९० को प्रयाग (वर्तमान में इलाहाबाद) में जन्म लिया उस कालखंड में जो इतिहास में काले अध्यायों के रूप में दर्ज हैं लेकिन उसके बावजूद भी उन्होंने अपने आपको कमजोर न पड़ने दिया और न ही कभी फिरंगियों से डरे क्योंकि वे अपनी काबिलियत व क्षमताओं को जानते थे और उनके दम पर ही उन्होंने अपने आपको उन विपरीत परिस्थितियों में भी कभी डिगने न दिया अपनी अथक मेहनत व अपूर्व लगन से उन्होंने अपनी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण तो जरुर कर ली लेकिन आजीवन विद्यार्थी ही बने रहे और जब भी जहाँ भी जो कुछ भी सीखने को मिला कभी पीछे न हटे और मन में अपनी मातृभूमि के प्रति कुछ करने का भाव था तो सरकारी नौकरी मिलने के बाद भी सरकार का उनके प्रति दासों वाला वो रवैया उन्हें बर्दाश्त न हुआ और उन्होंने उस नौकरी को छोड़कर शिक्षा के क्षेत्र में अपनी सेवा देना शुरू कर दिया लेकिन रुझान पत्रकारिता में अधिक था तो पहले ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी’ के सानिध्य में ‘सरस्वती’ में लेखन कार्य किया और फिर ‘अभ्युदय’ से जुड़ गये और अंतत उस जगह पहुंचे जिसकी वजह से उन्हें जाना जाता याने कि ‘प्रताप’ के संपादक के तौर पर और इस अख़बार ने उनको वो प्रतिष्ठा दिलवाई जिसने उनको शीर्ष पर स्थापित कर दिया

कोई भी विषय हो या मुद्दा वे कभी डरते नहीं थे और बड़े निर्भीक होकर अपनी बात रखते थे जिसके कारण उनके  आलेखों को पाठक बड़ी रूचि लेकर पढ़ते थे और साहित्य प्रेम ने उनको कथा लिखने भी प्रेरित किया तो उन्होंने उस विधा पर भी अपनी कलम चलाई जिसने उनकी लोकप्रियता में इजाफा किया यही वजह कि भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल भी ‘प्रताप’ से जुड़ना गौरव की बात समझते थे क्योंकि ‘विद्यार्थी जी’ के क्रांतिकारी विचार उनको अपने से ही लगते थे और शायद, यही कारण कि उन दिनों स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में उनका समाचार पत्र ‘प्रताप’ भी अहम साबित हुआ जिसने मुखरता के साथ अपनी बात कही और इस बेबाकी से अंग्रेज सरकार उनसे डरती थी परंतु दुर्भाग्यवश हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों में 25 मार्च 1931 को उनकी जान चली गयी ये वही साल जब भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को भी इसी महीने में दो दिन पूर्व असमी फांसी दी गयी थी अब केवल उनकी स्मृति ही शेष हैं जो बताती कि उस समय किस तरह के जुझारू लोग हुए जो आज दुर्लभ कि अब तो पत्रकारिता बिकी हुई हैं               
       
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२६ अक्टूबर २०१७

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