शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2017

सुर-२०१७-२९१ : प्रकृति साक्षात् ईश्वर... पूजे इसे हर नारी-नर...!!!



सोलह कलापूर्ण योगाधिराज भगवान ‘श्रीकृष्ण’ के जीवन-चरित को समझ पाना लगभग असम्भव हैं क्योंकि वो उपर से देखने में जितना सहज-सरल दिखाई देता हैं उतना हैं नहीं इसलिये जब उसके भीतर उतरो तो वो उतना ही गहरा प्रतीत होता हैं जिसकी थाह पाना स्थूल बुद्धि वालों के वश की बात तो कतई नहीं इसलिये वे जब भी उनकी बात करते तो उनकी माखन चोरी की बातें या फिर उनके द्वारा गोपियों से की जाने वाली छेड़खानी या उनके वस्त्रहरण और रासलीला से आगे देख ही नहीं पाते ऐसा इसलिये होता कि इस तरह से वे अपने आपको उनके समकक्ष खड़ा कर पाते लेकिन, उनकी लीलाओं की इन घटनाओं से यदि हम उनके चरित्र का निर्धारण करे या उनकी कोई छवि बनाये तो वो उसी तरह आधी-अधूरी और असंगत होगी जिस तरह कि चार अंधों द्वारा हाथी को मात्र छूकर देखने से उसकी आकृति के बारे में अलग-अलग निष्कर्ष निकाला गया था जिनमें से कोई भी असत्य तो नहीं था लेकिन संपूर्ण नहीं था हालाँकि, उन सबको आपस में जोड़कर उसे पूर्ण किया जा सकता लेकिन, ये भी केवल उसके द्वारा ही संभव था जिसे उसके आदि या अंत का ज्ञान हो अन्यथा वो किसी भी हिस्से को कहीं भी जोड़ देगा जिससे कि बनने वाला आकार कुछ भी हो लेकिन उसे हाथी तो न कहा जायेगा तो उसी प्रकार जो लोग उन्हें चोर या रसिक या प्रेमी या योद्धा या योगी या भगवान् कहते दरअसल वो सत्य के केवल उसी अंश को अनावृत करते जितना उन्होंने देखा-समझा या महसूस किया इस आधार पर अगर हम अपनी कोई धारणा बना ले उसे अंतिम नहीं माना जायेगा कि उसमें बहुत कुछ अभी भी शेष जो निरंतर उनको जानने के प्रयासों में जुड़ता जायेगा फिर भी कोई उसके आखिरी छोर तक न पहुँच पायेगा कि ये एक अनंत यात्रा जिसमें पड़ाव तो कई हो सकते लेकिन मंजिल कोई भी नहीं और यात्री को भी किसी ठौर पहुँचाने की जगह लगातार उस सफ़र में बने रहना ही भाता हैं कि मंजिल तो यात्रा समाप्ति का द्योतक होता हैं जिसके आगे कुछ भी बाकी नहीं रहता

उनके जीवन की हर एक कथा उनके एक अलग ही पहलू को हमारे सामने लाती और हम चमत्कृत होकर बस, उनको देखते रहते और अपनी अल्प बुद्धि पर शर्माते जिसने उनको समझने में हमारी पूरी मदद नहीं की पर, फिर इस नये आयाम पर भी खुश होते कि कम से कम हमें इसका परिचय तो हुआ जिससे अब तक हम अनभिज्ञ थे । ऐसा ही होता जब वे ब्रजवासियों को देवराज ‘इंद्र’ की पूजा करने की जगह गोवर्धन पर्वत को पूजने की कहते हैं तो सब लोगों को भी आश्चर्य होता हैं लेकिन, जब वे उन्हें समझाते हैं कि वास्तविक देवी-देवता तो ये प्रकृति हैं जो हमें सबकुछ बिना मांगे ही देती जिससे हमारा जीवन-यापन होता तो वे सब उनकी इस बात से सहमत होकर वही करते । जिसकी वजह से इंद्र देवता नाराज़ होकर अतिवृष्टि करते हैं तब भगवान श्रीकृष्ण अपनी ऊँगली पर पर्वत उठाकर वहां उपस्थित सब लोगों की रक्षा और इंद्र देवता का मानमर्दन करते हैं पर, कहानी केवल इतनी नहीं हैं बल्कि इसमें जो सन्देश छिपा वो बेहद गूढ़ हैं कि वे उन सभी लोगों से अपनी पूजा करने को नहीं कहते बल्कि जो साक्षात् देवता हैं अग्नि, सूर्य या पर्वत, नदी, झरने उनको पूजने की बार करते जो दर्शाता कि के हम सबसे यही कहना चाहते कि हमें ईश्वर की अवधारणा को समझने की जरूरत जिसे हम मूरत में ढूंढते वो तो हमारे आस-पास अनेकों रूपों में मौजूद जरूरत केवल उसे पहचानने की हैं ।                                                                                        
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२० अक्टूबर २०१७

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