गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

सुर-२०१७-२७६ : शरतचंद्र-सी शीतलता ‘रामायण’ देती... रच गये जिसे आदिकवि ‘महर्षि वाल्मीकि’...!!!



आज हम सब अपने देश में आदिकवि महर्षि वाल्मीकि की जयंती मना रहे जो स्वतः ही त्रेतायुग और रामराज्य की संकल्पना को ही नहीं बल्कि उसे स्थापित करने वाले हमारे आदर्श पूजनीय मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की उपस्थिति को भी प्रमाणित करती हैं क्योंकि यही वो महात्मा जिन्होंने भूमिसुता जनकनंदिनी ‘सीता’ को न केवल अपने आश्रम में आश्रय दिया बल्कि उनके दोनों पुत्र लव-कुश को शिक्षा-दीक्षा भी दी और जो कुछ भी अपनी आँखों से देखा उसे अपने महाकाव्य ‘रामायण’ में ज्यों का त्यों लिख दिया जिसे कि सर्वाधिक प्रमाणिक और रामकथा का बखान करने वाला प्रथम धर्मग्रंथ माना जाता हैं इस तरह से हम ‘वाल्मीकि’ के रूप में एक ऐसी दिव्यात्मा के दर्शन करते हैं जिन्होंने राम-सीता के साक्षात् दर्शन ही नही किये बल्कि उनकी जीवन गाथा का हिस्सा भी बने इस तरह से उनका लिखा हुआ एक-एक शब्द महज़ एक कहानी या कथा नहीं बल्कि उस युग का जीवंत वर्णन हैं जिसे उन्होंने स्वयं ही जिया और फिर अपनी कलम से उसे ‘रामायण’ में उतार दिया जिसे आज भी हम पढ़ते और उस कालखंड में पहुँच जाते और श्रीराम के जन्म से लेकर उनके राज्य स्थापना तक की यात्रा के साक्षी बनते बिलकुल उसी तरह जिस तरह से ‘वाल्मीकि’ ने उसे अपने नेत्रों से देखने का सुख अनुभव किया था वही हम उनके लिखे शब्दों से अपने कल्पना रचित चित्रों में देख महसूस करते कि वे महज़ एक कवि या लेखक नहीं जो अपनी कल्पनाशीलता से कुछ पात्र या चरित्र रचता फिर उन्हें अपनी बुद्धिनुसार जैसा चाहे वैसा ही नचाता  

‘वाल्मीकि’ तो एक ऐसे मानव जिनका अपना स्वयं का जीवन ही दूसरों के लिये प्रेरणास्त्रोत कि उन्होंने अपना आरंभिक जीवन एक डाकु के रूप में व्यतीत किया लेकिन उनका जन्म तो किसी दूसरे ही कार्य के लिये हुआ था तो उनकी भेंट ‘नारद जी’ से हो गयी जिन्होंने उनको अपने इस धरा पर आने के उद्देश्य की तरफ लक्षित करने के लिये कुछ ऐसा स्वांग रचा कि उनसे ये जानने के लिये उनको अपने परिजनों के पास भेजा कि वो जो पाप कर्म याने कि दस्यु कार्य करते उसके भागी उनके साथ वे लोग भी बनेंगे या नहीं तो उन्होंने अपने घर जाकर सबसे ये सवाल किया जिसका उत्तर उन्हें अपने मन के प्रतिकूल मिला लेकिन इसने उनके आगे के लक्ष्य हेतु मार्ग जरुर अनुकूल बना दिया एकाएक उन्हें ये भान हो गया कि वे जिनके लिये ये घृणित काज करते वे सब उसका सुख भोगने तो उनके साथ लेकिन उससे मिलने वाले दुखों को भोगने तैयार नहीं ऐसे में उन्हें ये समझ आ गया कि अब तक उन्होंने अपना समय बेवजह ही गलत कार्यों में व्यतीत किया लेकिन अब आगे उनको कुछ ऐसा करना हैं जो उनके पापों को पुण्य में बदल दे तो इसका एकमात्र उपाय प्रायश्चित्त ही हो सकता हैं और इसका पथ तपस्या के सिवास कोई अन्य नहीं पर, इस तप में किस मंत्र का सहारा ले तो ‘नारद’ जी ने ही उनकी दुविधा का समाधान करते हुये उन्हें ‘राम’ जपने को कहा लेकिन अज्ञानतावश वे उसे उल्टा ही जपने लगे

कहते हैं भगवान तो केवल भावों के भूखे तो उन्होंने उनके पवित्र मनोभावों को जान लिया और उन्होंने प्रसन्न होकर उन पर ऐसी कृपा वर्षा की जिसकी वजह से वे अपने जीवन में घटी एक अन्य घटना के कारण ‘आदिकवि’ कहलाये जब एक दिन वे तमसा नदी के किनारे केलि करते क्रोंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे तभी  न जाने कहाँ से एक तीर आकर एक पक्षी के हृदय को बेध गया और इस करुण दृश्य को देखकर वे इतने द्रवित हो गये कि सहसा उनके अधरों से एक छंद निकला जिसने उन्हें संसार के प्रथम कवि होने का गौरव दिलाया यही नहीं ईश्वरीय आशीष से उन्हें उस युग के महानायक भगवान् विष्णु के अवतार अयोध्या नरेश ‘श्री राम’ की पावन कथा कहने का अवसर प्रदान किया जिसके लिये माँ सीता को उनके आश्रम में भी भेजा तो उन्होंने वो कहानी लिखकर उनको याद करवा दी जिसकी वजह से उनके पिता ने उन्हें पहचान लिया इस तरह श्रीराम ने खुद इसे सुना और हम खुशनसीब कि हमें पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ      

आज उन्हीं आदिकवि महर्षि वाल्मीकि की जयंती और शरद पूर्णिमा की रात हैं... जिनका आपस में इतना गहरा रिश्ता कि उनकी लिखी ‘रामायण’ हम सबको गहन अंधकार और दुखों की तेज तपन में शीतलता का अहसास देती... तो सभी को ‘वाल्मीकि जयंती’ और ‘शरद पूर्णिमा’ की अनेकानेक शुभकामनायें... सबके जीवन में ऐसी ही चांदनी छाई रहे... :) :) :) !!!
           
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०५ अक्टूबर २०१७

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