आज जब इस देश में जन्मी नारी शक्तियाँ ‘स्त्रीवाद’
के नाम पर खुद को ‘फेमिना’ घोषित कर ‘फ्री सेक्स’, ‘लिव-इन’, ‘अफेयर’, ‘यौन आज़ादी’
के लिये संघर्षरत हैं क्योंकि इनकी नजर में ‘फेमिनिज्म’ का यही मतलब हैं और महज़
दैहिक स्वतंत्रता को ही ‘नारीवाद’ समझती हैं याने कि वो जो चाहे पहने, जो चाहे करे, जिसके साथ चाहे घुमे और सिगरेट-शराब व नशे में गाफ़िल रहे लेकिन कोई
उन्हें कुछ न कहे तब वे मानेगी कि वे पितृसत्ता से मुक्त हैं क्योंकि व्रत-उपवास,
परम्पराएँ, रीति-रिवाज़, घर के काम. बच्चे पालना, बड़ों कि सेवा और त्यौहार उनके अनुसार पितृसत्ता की देन हैं
जो उन पर जबरदस्ती लाद दिए गये हैं ऐसे में उनसे मुक्त होना ही उनका ‘स्त्रीवाद’
हैं जिसे वे आये दिन तरह-तरह से सोशल मीडिया में व्यक्त करती रहती हैं । ऐसे में जब हम आज से 150 साल पीछे मुडकर देखते हैं तो एक ऐसी महिला
नजर आती हैं जिसने न तो इस भारत भूमि में जनम लिया और न ही इस तरह की परिस्थितियों
में जीवन ही गुज़ारा फिर भी केवल ‘स्वामी विवेकानंद’ से हुई एक भेंट ने उनके अंतर
में इस भूमि के प्रति ऐसा सहज आकर्षण पैदा कर दिया कि वो अपने स्वतंत्र देश को
छोड़कर इस गुलाम देश में चली आई और आजीवन इस देश के लिये कार्य करती रही दुसरे
शब्दों में कहे तो जिस तरह का जीवन जीने का सपना हमारे यहाँ कि स्त्रियाँ देखती उस
वास्तविकता को लात मारकर उन्होंने स्वैच्छा से उस ज़िन्दगी को चुना जिसके बारे में
ये तथाकथित आन्दोलनकारी नारियां जानती ही नहीं कि परतंत्रता कि बेड़ियों में जकड़े
अपने ही देश में स्त्रियों कि दशा कितनी खराब थी ।
28 अक्टूम्बर, 1867 को काउंटी टाईरोन, आयरलैंड में श्री सैमुएल रिचमंड नोबेल जो
एक चर्च में पादरी थे और उनकी धर्मपत्नी मैरी इसाबेल के घर इक नन्हीं बालिका ‘मार्गरेट
एलिज़ाबेथ नोबेल’ का जन्म हुआ और मार्गेरेट के पिता ने बचपन से ही उनके दिमाग में
ये बात बिठा दी थी कि, “मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है” तो ये भावना उनमें शुरू से ही
रही जो ये दर्शाती कि संस्कार यदि बाल्यकाल कि कोमल जमीन में रोप दिए जाये तो वे
निश्चित ही एक दिन विशाल वृक्ष बनते जैसा कि आगे चलकर इनकी कहानी में भी साबित हुआ
और इस संस्कार ने उनको एक समाजसेविका बनाने में महती भूमिका निभाई । उनके पिता ने उनकी शिक्षा-दीक्षा में
भी कोई कमी न रखी और उन्होंने हेलिफेक्स कॉलेज से अपनी पढाई पूरी की जिसमे
उन्होंने कई विषयों के साथ-साथ संगीत और प्राकृतिक विज्ञान में दक्षता प्राप्त की
तथा 17 वर्ष की आयु में अपनी शिक्षा पूर्ण करने के बाद अध्यापन कार्य प्रारम्भ कर
दिया याने कि पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर बनी तथा उनके मन में सहज ही धर्म के बारे
में जानने की बहुत जिज्ञासा थी जिसने उनके जीवन कि सहज-सरल दिशा की राह दुसरे देश
में मोड़ दी जहाँ पर उन्होंने अपनी इस हिक्षा का भरपूर उपयोग दूसरऋ महिलाओं को शिक्षित
बनाने में किया जबकि आज कि अधिकतर पढ़ी-लिखी आधुनिकाएं केवल खुद को ही आगे बढाने
में लगी रहती न तो किसी का जीवन संवारती न उसे बदलने में ही कोई भुमिक निबाहती पर,
समाज या पुरुषों पर ऊँगली उठाने का कोई मौका नहीं छोड़ती हैं धन्य हैं ये कलयुगी
नारीवाद ।
ये नवंबर 1895 की बात हैं जो उनके जीवन
में भाग्योदय बनाकर आया जब अमेरिका से लौटते हुए ‘स्वामी विवेकानंद’ तीन महीने के
लिए लंदन पहुंचे तब उनसे उनकी प्रथम मुलाकात हुई फिर उन्होंने स्वामी विवेकानंद के
कई व्याख्यानों में भाग लिया और पारस्पारिक वार्तालाप में उन्होंने अपनी शंका के
कई प्रश्न स्वामी विवेकानंद से पूछे तथा उनके उत्तरों ने ना केवल उनकी शंकाएं दूर हुई
बल्कि उनकी शिक्षाओं में गहरा विश्वास व उनके प्रति मन में गहरा आदरभाव भी उत्पन्न
हुआ । उस वक़्त भारत में ब्रिटिश शासनकाल चल रहा था तो उन्होंने भारतवासियों की
दुर्दशा का वर्णन करते हुए बताया कि केवल शिक्षा के द्वारा ही भारतीय समाज की सभी
कुरीतियों को दूर किया जा सकता है साथ ही भारतीय महिलाओं की स्थिति में भी सुधारा लाया
सकता है तो इस तरह उन्होंने मार्गेट को भारतीय महिलाओं को शिक्षित करने का जिम्मा
सौंपा। इसके बाद उन्होंने भारत आने का निर्णय
लिया और स्वामी विवेकानंद के आवाह्न वे 28 जनवरी, 1898 को वो कोलकाता पहुंच गई जहाँ ‘स्वामी
विवेकानंद’ ने शुरुआती कुछ दिनों में मार्गेट को भारतीय इतिहास, दर्शनशास्त्र, साहित्य, आम जन जीवन, सामाजित रीतियों और महान व्यक्तिवों के बारे
में बताया जहाँ 25 मार्च 1898 को ‘मार्गरेट नोबल’ ने स्वामी विवेकानंद के देख-रेख
में ‘ब्रह्मचर्य’ अंगीकार किया जिसके बाद विवेकानंद ने
उन्हें एक नया नाम ‘निवेदिता’ दिया । इस प्रकार ‘भगिनी निवेदिता’
किसी भी भारतीय पंथ को अपनाने वाली पहली पश्चिमी महिला बनीं जिसका जिक्र उन्होंने अपनी
पुस्तक ‘द मास्टर ऐज आई सॉ हिम’ में किया है वे अक्सर स्वामी विवेकानंद
को ‘राजा’ कहती थीं और अपने आप को उनकी आध्यात्मिक पुत्री
।
भारत और भारतीयों को को पूरी से अपनाना
कोई एक दिन में ही नहीं हुआ पर, जब हुआ तो फिर ऐसा कि जैसे यहीं जनम लिया हो जिसकी
शुरुआत कुछ यूँ हुई कि एक बार किसी बात में अनजाने ही उनके मुख से भारतीयों के लिए
‘ये भारतीय’ जैसा पराया सम्बोधन निकला तब स्वामीजी ने अत्यन्त
गम्भीरता से झिड़की दी, ‘‘तुम
यदि भारत को अपना नहीं मानती तो अपने ब्रिटिश अभिमान के साथ वापिस जा सकती हो और यदि
यहां रहना है तो अपने अन्दर से सारा ब्रिटिशपन, सारी अंग्रेजियत निकाल दों’’ गंभीरता से कही गयी ये बात अपना सबकुछ छोड़कर भारत की सेवा के लिए
भारत आई मार्गरेट के अहंकार किसी झ्त्क्र की तरह लगी जिसे उन्होंने अपने पत्रों
में व्यक्त किया है। लेकिन, इसके बाद भारत, भारतीय और हर हिन्दू चीज के लिए उनके मुख से
अपनेपन के अलावा कुछ नहीं निकला यहाँ तक कि भारत को अंग्रेजी में भी वे कभी ‘इट’ सर्वनाम नहीं लगाती, अत्यन्त व्यक्तिगतता से ‘हर’ ही कहती उनके इस समपर्ण को देखकर तथा उनके
हिन्दुत्व को अपनाने के सन्दर्भ में गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकूर ने कहा था, ‘‘आजतक इस भूमि पर जन्म लिए किसी भी अन्य
हिन्दू से भगिनी निवेदिता अधिक हिन्दू थी’’ ।
आज जब अपने देश में युवा पीढ़ी भारत की
जड़ों को काटने में तुली हुई तथा भारतीय संस्कृति का मखौल बनाने का कोई मौका नहीं
छोड़ती तथा विदेश जाकर रहने ही नहीं अंग्रेज बनने की जुगत में लगी हुई ऐसे में ‘भगिनी
निवेदिता’ की जीवन गाथा, कार्यों व साहित्य का अध्ययन उसका प्रचार-प्रसार अधिक
आवश्यक हो जाता ताकि लोग जाने कि जिस देश, जिसकी परम्पराओं या हिंदू धर्म को वो हे
दृष्टि से देखते उसे एक विदेशी महिला ने न केवल अपनाया बल्कि महिला सशक्तिकरण की
एक मिसाल भी बनी कि उन्होंने किसी सोशल मीडिया में बातें न फैलाई बल्कि जमीनी काम
किये और आज 13 अक्टूबर, 1911
को वे दार्जिलिंग में अपने गुरुतत्व में सदा के लिए लीन हो गईं ।
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१३ अक्टूबर २०१७
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