सोमवार, 17 दिसंबर 2018

सुर-२०१८-३४७ : #याद_आया_वो_गुज़रा_जमाना #जिसमें_शामिल_अब्दुर्रहीम_ख़ानख़ाना




एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय ।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अगाय ॥

हम सबने ही अपने पाठ्यक्रम में कभी न कभी ‘रहीम’ के लिखे दोहे जरुर पढ़े होंगे और आज भी यदा-कदा उनको दोहराते है क्योंकि, उन्होंने जो भी लिखा वो गहरे अनुभवों से निकला सार था जो सदियों तलक प्रासंगिक रहेगा इसलिये उनका नाम भी उसी तरह सदियों-सदियों तक साहित्य के आकाश पर सूर्य की भांति चमकता-दमकता रहेगा और जब-जब १७ दिसम्बर आयेगा ये दिन हमें उनकी याद दिलायेगा कि आज ही वो शुभ दिवस जब उन्होंने जनम लिया और मुगल सम्राट अकबर के दरबार के नौ-रत्नों में अपना नाम लिखवाया इस तरह साहित्य ही नहीं इतिहास में भी अपना नाम दर्ज करा लिया ऐसे में उन्हें भूला पाना किसी के भी लिये आसान नहीं है

रहिमन चुप हो बैठिये देखि दिनन के फेर
जब नीके दिन आइहैं बनत न लगिहैं देर

रहीम के पिता वहीँ ‘बैरम खान’ थे जिन्होंने १३ वर्ष की आयु में ‘अकबर’ के कंधों पर राज-दरबार की जिम्मेदारी आने पर उनके सरंक्षक के रूप में दायित्व निभाया और जब वे ६० साल के थे तब उनका जन्म हुआ और उनका नाम भी ‘अकबर’ के द्वारा रखा गया और उनके पिता की मृत्यु के बाद उनकी देख-रेख का भर ‘अकबर’ ने अपने जिम्मे ले लिया धीरे-धीरे उनकी योग्यतायें प्रकट होने लगी वे बचपन से ही साहित्य प्रेमी और बुद्धिमान थे जिनसे अकबर बेहद प्रभावित हुये और उनको अपने दरबार में शामिल करने का निर्णय लिया माना जाता है कि वीरता, राजनीति, राज्य-संचालन, दानशीलता तथा काव्य जैसे अदभुत गुण अपने माता-पिता से विरासत में मिले थे ।

सबको सब कोउ करै कै सलाम कै राम
हित रहीम तब जानिये जब अटकै कछु काम

रहीम का पूरा नाम ‘अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना’ अथवा ‘अब्दुर्रहीम ख़ाँ’ था तथा उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का अनाकलन करने के लिये उनके अलग-अलग स्वरूपों को समझना होगा क्योंकि, वे केवल एक कवि या साहित्यकार ही नहीं थे बल्कि, कुशल राजनीतिज्ञ, सेनापति, हिन्दुत्व प्रेमी, आश्रयदाता और बहुत बड़े दानवीर भी थे और बिना दान दिये उनका दिन नहीं गुजरता था उनकी दानशीलता का एक किस्सा बड़ा मशहूर है वे दान देते समय अपनी आँख उठाकर नहीं देखते थे जिसकी वजह फिर से कभी-कभी कोई दुबारा भी मांगने खड़ा हो जाता उनके समकालीन कवि गंग ने ये उदगार तब व्यक्त किये--

सीखी कहाँ से नवाबजूं ऐसी देनी देन ?
ज्यों- ज्यों कर ऊंचे चढ़ें ,त्यों त्यों नीचे नैन

तब रहीम ने उत्तर दिया --

देनहार कोई और है, जो देता दिन -रैन ,
लोग भरम मो पे करें, ताते नीचे नैन।

ऐसा ही एक और किस्सा है कि एक बार ‘तुलसीदासजी’ ने एक ब्राह्मण, जो कि उनके पास अपनी बेटी की शादी का खर्च लेने आया था को यह पंक्ति लिखकर रहीम के पास भेज दिया...

सुतिय नातिय नाग तिय, यह चाहत सब कोया ।

रहीम ने ब्राह्मण को तो पुरुस्कृत किया ही साथ-साथ दोहे के पद पूर्ति इस प्रकार की --

सुर तिय नर तिय नाग तिय, यह चाहत सब कोय।
गर्म लिए हलसी फिरै , तुलसी सो सुत होय।।

उनके जीवन के ऐसे अनगिनत प्रसंग है जो ये बताते कि वो मुसलमान होकर भी हिन्दू धर्म व भगवान कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति भावना रखते थे और रामायण, महाभारत, पुराण तथा गीता जैसे ग्रंथों के कथानकों को लिया अपने काव्य का विषय बनाया यही नहीं भाषा के प्रति भी बेहद संजीदा थे इसलिये उन्होने अपनी कविताओं, छंदों, दोहों में पूर्वी अवधी, ब्रज भाषा तथा खड़ी बोली का प्रयोग किया है

टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार ।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार ॥

आज ‘रहीम’ को जन्मदिवस पर अनंत शुभकामनायें... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१७ दिसम्बर २०१८

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