गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

सुर-२०१८-३५७ : #शायरी_का_पर्याय_मिर्ज़ा_ग़ालिब #उनके_लिखे_हर्फ़_हर_दास्ताँ_में_शामिल




मुझसे कहती है तेरे साथ रहूंगी सदा,
ग़ालिब बहुत प्यार करती है मुझसे उदासी मेरी

कोई इस जहाँ में ऐसा नहीं जिसकी जुबां पर उसका नाम नहीं, नाम गर, न भी हो लबों पर तो ये नामुमकिन कि उसके अल्फाज़ से कोई वाकिफ़ नहीं गोया कि जिन्हें शायरी की समझ नहीं या जिनका गज़ल में रुझान नहीं वे भी इस नाम से परिचित और कभी-न-कभी उसका कोई शेर कहीं-न-कहीं जरुर पढ़ा होगा कि उनके लिखे कई अशआर तो मुहावरे की तरह प्रयोग किये जाते है जो उनकी मकबूलियत को जाहिर करते कि किस कदर उन्होंने जीवन को हर सांस में जिया ही नहीं बल्कि, अपनी कलम से बयाँ भी किया जो अमूमन किसी न किसी की ज़िन्दगी के किसी न किसी अहसास से टकरा ही जाता तो अनायास ही उसके होंठों पर उसकी लिखी कोई शायरी आ ही जाती है...

हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता

किसी के लिये तो उनको निरंतर पढ़े जाना ही नित अर्थों के नये पन्ने खोलता है क्योंकि, जरुरी नहीं कि सामने वाला उसके वही मायने निकाले जो लिखने वाले ने कहना चाहा कभी-कभी तो पढ़ने वाला अपने हिसाब से उसे नये तरह से परिभाषित करता और इस तरह तमाम शोध उन पर जारी रहते कि इतने सारे अनछुये पहलुओं को जानने के बाद भी कुछ ऐसा बाकी रहता जो उसे ही नजर आता जो उसकी तलाश में भटक रहा और यही बेचैनी ही तो है जो ग़ालिब को मिटने नहीं देती और न ही कभी उनका नाम कभी अतीत का हिस्सा बनेगा बावजूद इसके कि उन्हें गुज़रे शताब्दियाँ हुई जा रही है पर सोशल मीडिया के इस जमाने में भी कोई सर्वाधिक लोकप्रिय है तो वो मिर्ज़ा ग़ालिबहै जिनके नाम पर तो अब वो कलाम भी दर्ज हुये जा रहे जो उन्होंने कभी लिखे ही नहीं जो उनके प्रति लोगों के जुनून को दर्शाता है कि अपने शब्दों को भी उनके नाम के साथ अमर कर देना चाहते है...

तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हाँ मगर चैन से बसर न हुई
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई

कोई-भी ऐसा जज्बात नहीं जिसे उन्होंने अपनी कलम से छूकर महसूस न किया हो या कोई ऐसा जज्बा नहीं जो उन्होंने महसूसा हो पर उसे जता न पाये हो कि अपनी फ़ाकामस्ती में रहते हुए भी वे किसी भी संवेदना से बच नहीं पाये चाहे फिर वो इश्क़ हो या उदासी या ख़ुशी या फिर गम का ही कोई आलम सबको उन्होंने इस तरह से सफों पर उतारा कि हर एक वो पल उस रूप में सदा-सदा के लिये इस तरह से पन्नों में दर्ज हो गया कि जब उसे कोई पढ़े तो उस अहसास से ही गुजरता है और खुद को कभी हंसता तो कभी रोता और कभी ग़मगीन पाता हैं कि रगों में दौड़ने वाले लहू के साथ जज्बात भी अक्सर, इस तरह से कलम के जरिये कागज़ पर उड़ेल दिये जाते है और जो शब्दों को इस खुबसूरती से शायरी में बाँधा करता वो खुद कहता है कि...

लफ़्ज़ों की तरतीब मुझे बांधनी नहीं आती ग़ालिब
हम तुम को याद करते हैं सीधी सी बात है

अपने इसी सीधे-साधे सटीक बात करने के अंदाज़ ने उनको आम जनता के बीच वो लोकप्रियता दी कि चलते-फिरते भी उन्होंने यदि कोई बात कह दी तो वो बहर में ही निकली कि गज़ल उनकी रूह में समाई हुई थी तो फिर भला गज़ल का वो शहंशाह किस तरह से कोई भी लफ्ज़ बेमानी कह देता इसलिये तो उनके जीते-जी ही नहीं बाद मरने के भी वो हमारे लिये उसी तरह मौज़ूद है जिस तरह से कोई शख्स अपनी मौज़ूदगी को सदेह साबित करता उसी तरह से कलमकार के शब्द ही उसके होने का भरम रखते है और जो रूह भटकती हो वफ़ा कि तलाश में तो वो शरीर के साथ छोड़ने पर भी उसे ढूंढती ही रहती चाहे फिर उसे उस नादानी का गुमां ही क्यों न हो जाये वो उसे खोजता ही रहता है...

मैं नादान था जो वफ़ा को तलाश करता रहा ग़ालिब
यह न सोचा के एक दिन अपनी साँस भी बेवफा हो जाएगी

उनकी क्या सबकी साँसों को एक दिन इसी तरह से साथ छोड़कर चले जाना है ये जानते-बुझते भी सब फ़िज़ूल उसे जाया करते चंद ही जो ऐसा कोई काम करते की फिर भले साँसें चूक जाये पर, वो ऐसा मुकाम हासिल कर लेते जब उनके न रहने पर भी उनका किया हुआ काम उनको जिन्दा रखता है यही वजह की आज उनके न रहने पर भी हम उनका जन्मदिन बड़े प्यार से मना रहे है और उन्हें बुला रहे कि वे अपने वादे पर कायम रहते हुये आये क्योंकि, वे हम सबके लिये गुज़रा हुआ वक़्त नहीं है बल्कि, उन्हें याद करके तो न जाने कितने अपना वक़्त गुजारते है...

मेहरबां होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी न सकूँ

मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ 'ग़ालिब' साहब को आज उनकी २२१ वी जयंती पर उनके सभी चाहने वालों कि तरफ से यौम-ए-पैदाइश की तहे दिल से मुबारकबाद... <3 !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२७ दिसम्बर २०१८

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