मंगलवार, 23 जुलाई 2019

सुर-२०१९-२०४ : #तिलक_और_आज़ाद #स्वाधीनता_दोनों_का_ख़्वाब




23 जुलाई 1856
23 जुलाई 1906

बेशक, इतिहास में दर्ज इन दो तारीखों में 50 बरस का अंतराल पर, इन दोनों दिनांकों में देश के दो अलग-अलग प्रान्त व समाज में दो महान विभूतियों 'तिलक' 'आज़ाद' का जनम ये बताता कि गुलामी की बेड़ियों में जकड़े देश की भूमि पर पैदा होने वाले इन दोनों वीरों की सोच में कोई अंतर नहीं था । पचास बरस का लम्बा समय या दोनों की जन्मभूमि के मध्य की दूरियां कोई भी इनके हृदय में उठने वाले भावों में भेद न कर सकी क्योंकि, भले इन्होंने अलग परिवारों में अलग-अलग माताओं की कोख से जन्म लिया मगर, सांकेतिक तौर पर 'भारतमाता दोनों की ही जननी थी तो उसके प्रति अपने फर्ज को दोनों बखूबी समझते थे और आजीवन उसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिये दोनों संघर्षरत रहते हुये ही अपने प्राणों का बलिदान देकर दोनों अमर हो गये हमारे जेहन में आज भी जिंदा है ।

ये उस दौर में जन्मी अनगिनत आत्माओं का स्वप्न था जिसके लिये उन्होंने जहां थे वहीं से यथासम्भव प्रयास किया और उनमें से ज्यादातर तो आज़ादी को देख भी नहीं पाये मगर, अन्तस् में ये सुकून था कि हमारी अगली पीढियां तो आज़ादी भोगेगी उसी तरह जिस तरह पौधा रोपने वाला नहीं जानता कि उस वृक्ष के फल कभी वो खा पायेगा या नहीं लेकिन, ये उसका फर्ज तो वो अपने जीवन में कई पेड़ लगाता कि भले मैं न रहूं पर, भविष्य में जो भी आयेंगे उनको तो इसके फल नसीब होंगे कि परोपकार एक निःस्वार्थ भावना जिसमें स्वार्थ नहीं परमार्थ छिपा होता है । ऐसी ही पवित्र भावनाओं ने 'बाल गंगाधर तिलक' को 'लोकमान्य' तो 'पंडित चंद्रशेखर' को 'आज़ाद' बना दिया और इतिहास में इस तरह से अपना नाम अंकित करवा दिया कि वो अमिट है फिर भी कुछ कृतध्न जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के महज़ 72 सालों बाद ही उन महापुरुषों को विस्मृत कर दिया जबकि, उनके न होने से जंगे आज़ादी लम्बी भी खींच सकती थी मगर, जब कोई चीज़ हासिल हो तो उसके प्रति लापरवाही का भाव आ ही जाता चाहे फिर वो कितनी भी अनमोल क्यों न हो तो हम जिन्होंने खुली हवा में सांस ली उस देश को उसी पश्चिमी संस्कृति में डुबो दे रहे जिससे बचाने की खातिर ये क्रांतिकारी अपना जीवन होम कर चले गये ।

'तिलक' और 'आज़ाद' पचास बरसों के अंतर से 'महाराष्ट्र' एवं 'मध्यप्रदेश' में जन्म लेने के बाद भी चिंतन के धरातल पर एक थे उनकी इसी विचारधारा ने उनको अपनी-अपनी जगह से ही अपनी लड़ाई शुरू करने का हौंसला दिया 'तिलक' ने जहां स्वराज्य को अपना जन्मसिद्ध अधिकार माना तो 'आज़ाद' ने घोषणा कर दी कि मैं आज़ाद हूं और आज़ाद ही मरूँगा तो अपने विचार को मूर्त रूप देने उन्होंने अपने-अपने स्तर पर स्वाधीनता संग्राम छेड़ा और अपने सम्पर्क में आने वालों को भी इस हेतु से प्रेरित किया और ये परिणाम हुआ कि 22-25 साल के नवजवान ही नहीं 11-12 साल के किशोर तक इस अघोषित युद्ध में अपने जान की परवाह न करते हुये शामिल व शहीद हुये कि देश स्वतंत्र हो सके जो हुआ भी पर, वे देख न सके और जिन्होंने देखा वे उनको भूल गये ये बेईमानी नहीं तो और क्या है । उनके बीच 50 साल का गैप भी वो फर्क नहीं डाल पाया जो इतने कम वक्त में आज हमारी घटिया सोच में आ चुका है अब जबकि, हम संवैधनिक रूप से एक है पर, मतांतर इतने कि अनेकता में एकता केवल एक भ्रम लगता क्योंकि, अधिकांश झगड़े तो खुद को सर्वश्रेष्ठ समझने को लेकर चल रहे जिसमें कोई पीछे हटने को तैयार नहीं इसलिए किसी निष्कर्ष पर भी नहीं पहुंच पा रहे है ।

यदि हम सब भी अपने इन राष्ट्रभक्त सपूतों की तरह सम्पूर्ण भारतवर्ष को एक समझे और इसकी तरक्की के लिए अपने निजहितों को उनकी तरह त्याग सकें तो निश्चित ही विश्व में अव्वल आ सकते पर, हम तो सरकार से सारी आस लगाकर बैठे रामजी की गिलहरी की तरह हम भी कुछ कर सकते ये भूल गये ऐसे में वोट देने के अलावा भी हम राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका अदा कर सकते ये समझना पड़ेगा अन्यथा, हमको शिकायत करने का कोई हक नहीं क्योंकि, यदि हम समाधान का हिस्सा नहीं तो हम खुद समस्या है ।

जय हिंद... जय भारत... वंदे मातरम... 🇮🇳 🇮🇳 🇮🇳 !!!
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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
जुलाई २३, २०१९

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