गुरुवार, 4 जुलाई 2019

सुर-२०१९-१८५ #हिन्दू_धर्म_का_परचम_लहराया #भारत_को_विवेकानन्द_ने_विश्वगुरु_बनाया



हिंदुओं के गिरते आत्मविश्वास और ब्रिटिशों के अत्याचारों से उपजी हताशा को समाप्त कर सनातन हिन्दू धर्म को विश्वपटल पर स्थापित करने के उद्देश्य से स्वामी विवेकानंद ने शिकागो जाने का निर्णय लिया और उसके बाद जो हुआ उसने इतिहास रच दिया और उनके भाषणों पर टिप्पणी करते हुये 'द न्यूयार्क हेराल्ड' को लिखना पड़ा कि, "धर्मों की पार्लियामेंट में सबसे महान व्यक्ति विवेकानंद है । उनके भाषण सुन लेने पर अनायास ही यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिये धर्म-प्रचारक भेजना कितनी बेवकूफी की बात है" ।

आज से लगभग 125 वर्ष पूर्व एक नौजवान ने बिना किसी संसाधन, साधन व सुविधा के वो कर दिखाया जो आज उच्च तकनीकी माहौल में करने के बारे में सोचना भी मुश्किल लगता कि यहां तो अपने ही देश में हम अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ नहीं बता सकते जबकि, उन्होंने पूरी दुनिया के समक्ष इसे साबित कर के दिखाया और यही नहीं शिकागो में मिली सफलता ने उनके भीतर उत्साह का वो उबाल ला दिया कि वे अगले 3 सालों के लिये इंग्लैंड में ही रह गये जहां उन्होंने भाषण, वर्तालाप, लेखों, कविताओं, बहस और वक्तव्यों के जरिये हिन्दू धर्म को सारे यूरोप में फैला दिया जबकि, हम अपने ही देश में ऐसा कर पाने में विफल हो रहे है ।

अपने प्रयासों से उन्होंने लम्बे समय से ईसाई धर्म-प्रचारकों ने हिन्दू धर्म के खिलाफ जो दुष्प्रचार किया, उसकी निंदा फैलाई उस पर पूरी तरह से रोक लगा दी और ये खबर जब भारत पहुंची तो वो हिन्दू जो अपने धर्म से विमुख हो रहा था, जिसे लगातार जुल्म सहते-सहते ग्लानि का अनुभव होने लगा था पुनः अपने धर्म और अपनी संस्कृति को लेकर गौरव का अनुभव बड़ी तीव्रता से करने लगा और वो बुद्धिजीवी युवा जो पश्चिम की चकाचौंध व अंग्रेजी से प्रभावित होकर बहकने लगा था ये देखकर कि अमेरिका के नर-नारी स्वामीजी के शिष्य बनकर हिंदुत्व की सेवा में लगे हुए है तो उन्होंने भी अपने जीवन की दिशा बदल ली जिसका विपरीत मगर, अब देखने में आ रहा जिसे देखकर निश्चित ही उनकी आत्मा को अत्यंत वेदना हो रही होगी पर, हमें तो खुद को सेक्युलर दिखाने का नशा चढा हुआ तो ये सब किस तरह से समझ आये ऐसे में स्वामी विवेकानंद को पढ़ना-सोचना ही एकमात्र विकल्प है ।

यूरोप और अमेरिका में भोगवादी जीवन शैली देखकर उन्होंने उनको संयम व त्याग का उपदेश दिया और भारत में दरिद्रता का शिकंजा देखकर उन्हें कर्म का ज्ञान दिया जिससे वे अपनी निर्धनता को स्वयं दूर कर सके न कि किसी के आगे हाथ फैलाकर अपनी विपन्नता का प्रदर्शन करें वे मानते थे कि जो लोग भूख से तड़फ रहे हो उनके आगे धर्म परोसना ठीक नहीं ये उनका अपमान है अतः रोटी को तरसते हाथों में दर्शन या धर्मग्रंथ रखकर उनका मजाक उड़ाने से बेहतर कि उन्हें कर्म का वो मन्त्र दिया जाये जो उनकी गरीबी को दूर कर सके उनके खोये स्वाभिमान को लौटा सके उनका कहना था कि, "धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है, धर्म न तो पुस्तकों में है, न ही धार्मिक सिद्धांतों में वह तो केवल अनुभूति में निवास करता है, धर्म अंधविश्वास नहीं जीवन का स्वाभाविक तत्व है" पर, हमने ही उनके उस अनमोल सबक को भुला दिया जिसका नतीजा सामने है ।

हमको असीम ज्ञान देकर वे महज़ 39 की अल्पायु में आज ही के दिन 4 जुलाई 1902 को हमको अलविदा कर के चले गये लेकिन, जो देकर गये यदि हम उसका मूल्यांकन करें और उसमें निहित संदेशों को ग्रहण करें तो जिस तरह फिर से हिन्दू धर्म व जाति अपने उच्च प्रतिमान से नीचे गिर रही उसे बहुत बड़ा सहारा और सम्बल मिलेगा जो उसको पुनः विश्वगुरु बना सकता है ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
जुलाई ०४, २०१९

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